Thursday, 7 September 2023

हीना खातून के लिए...

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ढलती शाम के साथ
पहाड़ियां सन्नाटे से लतपथ थी
तीस्ता का पानी ठिठक सा गया था
समय के साथ
चुप्पियों की सघनता बढ़ रही थी
किसी में कुछ भी कह पाने का साहस नहीं था

शायद! यह सब देखते-देखते
हीना ने दुनिया को अलविदा कहा होगा।

भोर के उजास के साथ
सुबह उदास थी।

पहाड़ियां, कुछ और नम थी
सहमी सी नदियों में हाहाकार था
पत्थरों में चुप्पी थी
चुप्पियों में ख़ामोशी थी
क्योंकि
पत्थर अब और पत्थर हो चुके थे।

हीना तुम नहीं हो
लेकिन, यहाँ तुम्हारे जितना ही चुप्पी है
और
चुप्पियों से कहीं अधिक पत्थर हैं

यह तेइस अगस्त की शाम है
हमारी घड़ी में छह बजकर चार मिनट हो रहे हैं
दुनिया चाँद-ख़यालों में गुम है

मोमबत्तियां अब सिहरकर बुझ चुकी हैं

तुम ठीक ही कहती थी
पत्थर महज पत्थर होते हैं।
हीना! क्या तुम चाँद पर हो?

~ प्रदीप त्रिपाठी








(पिछले दिनों सिलीगुड़ी से गंगटोक जाने के रास्ते में बाग़पुल के पास लैंडस्लाइड के कारण सिर पर अचानक पत्थर गिरने से सिक्किम विश्वविद्यालय की विद्यार्थी हीना का असामायिक निधन हो गया। यह हम सबके लिए अत्यंत दुःखद क्षण है। बहुत भारी मन से विनम्र श्रद्धांजलि! हीना)

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Sunday, 9 October 2022

‘भ्रष्टाचार’ भी हमें एकसूत्र में पिरोता है वाया अरण्य रोदन : सुधांशु गुप्त

भारत को एकसूत्र में पिरोने वाली बहुत सी चीजें हैं और हो सकती हैं। यहां की विविधता, नदियां, पहाड़, जंगल, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और बहुत से पर्यटन स्थल। ये सब हमें कहीं न कहीं जोड़ते हैं। यहां का प्राणी, यहां की वाणी और सबसे अहम यहां रहने वाले लोगों का व्यवहार, कमोबेश यकसां ही होता है। कम से कम व्यवहार के बारे में तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है। मिसाल के तौर पर राजनीतिक चरित्र और व्यवहार पूरे भारत में एक ही जैसा है। साफ शब्दों में कहा जाए तो भ्रष्टाचार के प्रति हम भारतीयों की जो आस्था है, उसकी प्रकृति हो सकता है अलग-अलग राज्यों में अलग हो लेकिन यह आस्था पाई हर जगह जाती है। आजादी के बाद से लेकर अब तक इस प्रवृति में कोई मूलभूत अंतर नहीं आया है। सिक्किम से हिन्दी में लिखा गया पहला उपन्यास है ‘अरण्य रोदन’।

सुवास दीपक ने इसे लिखा है। इस उपन्यास का पहला संस्करण 1985 में संभावना प्रकाशन से छपा था। यह वह समय था जब भ्रष्टाचार को हम भारतीय अपने व्यवहार में शामिल करना सीख रहे थे। इसका दूसरा संस्करण 2021 में आया है (संभावना प्रकाशन)। यानी इसके दूसरे संस्करण पर 35-36 साल का समय बीत चुका है। बावजूद इसके लगता यही है कि जो बातें 1985 में लिखी गईं, उनमें आज भी रत्तीभर फर्क नहीं आया है। यदि आप इसके प्रकाशन की तिथियों को भूल जाएं तो इस उपन्यास में दर्ज बहुत कुछ आपको आज जैसा ही दिखाई देगा। 

जाहिर है उपन्यास भ्रष्टाचार पर है। आजादी के बाद भ्रष्ट व्यवस्था किस तरह देश में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दिवालियेपन की विकलांग स्थिति पैदा कर रही है, वही इस उपन्यास का मूल है। भ्रष्ट राजनीति अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने के लिए कैसे घिनैने हथकंडे अपनाती है और बेईमान अफसरों और राजनेताओं के संसर्ग से उत्पन्न चमचावाद किस तरह पूरे तंत्र पर हावी होता जा रहा है, आज यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन यहां एक सवाल यह उठता है कि यह एकरूपता आखिर जन्म कहां से लेती है, नेताओं को भी यह सूत्र कहां से मिलता है? सुवास दीपक ने इसी सवाल का जवाब अपने ख़ास अंदाज में तलाशा है। प्रतीक के तौर पर उन्होंने स्कूल को चुना है। उन्होंने दिखाया है कि किस तरह अपने आपको सबसे अधिक शोषित-पीड़ित बताने वाला शिक्षक वर्ग किस तरह देश की भावी पीढ़ी का निर्माण कर रहा है।

स्टायरिकल अंदाज में लिखे इस उपन्यास में स्कूल है, शिक्षक हैं और पढ़ने वाले बच्चे हैं। शिक्षकों की आपसी मारकाट है, कुर्सी के प्रति मोह है, एक दूसरे को हलाल करने की तीव्र इच्छा है, पक्ष है, विपक्ष है, लड़कियों (अध्यापिकाओं) के प्रति उनकी कुदृष्टि है। और वह सब कुछ है जो संसद में हमारे राजनेता करते हैं। यहां तक की चंदा एकत्रित करना, जागरण करवाना, बच्चों को अध्यात्म की शिक्षा देना जैसे कृत्य भी हैं। स्कूल में जिस तरह बच्चों को अध्यात्म और राष्ट्रवाद का सबक पढ़ाया जा रहा है, उसके पढ़कर अचानक आपको मौजूदा समय दिखाई पड़ता है। सुवास दीपक का मानना है कि देश की संस्थाएं और संसदीय व्यवस्था दोनों एक ही पैटर्न पर चलती हैं। संसदीय व्यवस्था में जाने वाले लोग इन्हीं संस्थाओं से ट्रेनिंग लेकर जाते हैं। जाहिर है इसीलिए उनका चरित्र भी एक जैसा होता है। शिक्षण संस्थानों और संसदीय व्यस्था के दोनों ही वर्गों में कुर्सी से चिपकने का विशेष मोह होता है। आप आज के शिक्षण संस्थानों को देखेंगे तो पाएँगे कि आज भी स्कूलों में वेद के मंत्रों, जन गण मन को जबरदस्ती पढ़ाया जा रहा है। दिलचस्प बात है कि सुवास दीपक ने इस प्रवृत्ति को साढ़े तीन दशक पहले ही देख लिया और उसे उपन्यास का विषय बनाया। उन्होंने प्रधानाध्यपाकों-प्राध्यापकों की प्रवृत्ति को समय के कालचक्र और व्यवस्था को भी बहुत बारीकी से देखा और समझा है। संवेदनशील अध्य़ापकों की क्या स्थिति होती है इसका उल्लेख भी सुवास दीपक ने शानदार ढंग से किया है। उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें एक अध्यापक स्कूल में मैडम वर्सिस प्रधान अध्यापक के शीत युद्ध पर गंभीर चिंतन करना चाहता है। वह अपने घर में इस स्थिति पर कुछ सोच पाए उससे पहले ही एक आकाशवाणी होती हैः बरखुरदार, जिस गंभीर चिंतन में तुम अपनी डेढ़ पसली की देह को सुखा रहे हो वह निहायत बचकाना चिंतन है। तुम्हारी पाठशाला में जो कुछ हो रहा है वह प्रजातांत्रिक विचारों का प्रतिरूप है। लोकतंत्र में हमारी आस्था है। उसे तब तक जीवित रखना है, जब तक हम जिंदा हैं। हम जिंदा हैं इसलिए यह लोकतंत्र जिंदा है। जिस दिन लोकतंत्र मर जावेगा, उस दिन हम भी मर जावेंगे। उसी अध्यापक की अंतरात्मा फिर सवाल करती है कि क्या लोकतंत्र के मरने पर ही हमारा मरना निर्भर है। फिर आकाशवाणी होती हैः वत्स अक्ल से काम लो। चिंतन मत करो। जिस दिन तुमने सोचना शुरू किया, भारत में उथल पुथल हो जावेगी। तुम अपने काम में बिना सोचे समझे लगे रहो। देशभक्त बनो, बच्चों को निष्ठावान बनाओ। उन्हें अच्छे नागरिक के गुण सिखाओ। परनिंदा से दूर रहो। अपनी गौरवशाली गुरु परंपरा को कायम रखो।

सुवास दीपक का यह पूरा ‘दर्शन’ आज का ही ‘दर्शन’ है, जो कहता है कान और आँख बंद करके काम करो, तुम्हारी नियुक्ति सोचने के लिए नहीं हुई है, तुम्हें सिर्फ ‘ऊपर के आदेशों’ का पालन करने के लिए रखा गया। चाहे राजनीति हो, अध्यपान हो या अन्य कोई पेशा, सब जगह यही ‘दर्शन’ काम करता है और इस ‘दर्शन’ पर चलने वाले ही जीवन में सफल होते हैं।

अंत में उपन्यास का नायक कथा का विदूषक ‘मैं’ या ‘हम’ अकेला पड़ जाता है और स्कूल से इस्तीफा दे देता है। वह उपन्यास लिखकर इस अरण्य रोदन (ऐसा रुदन जिसे कोई सुनने वाला कोई न हो) में शामिल होता है। हिन्दी में स्टायरिकल शैली में लिखने वाले बहुत कम लेखक हैं, संभवतः मनोहर श्याम जोशी ऐसे लेखक थे जिनके लेखन में आपको स्टायर मिलेगा, अन्यथा स्टायर लिखना आसान काम नहीं है। सुवास दीपक भ्रष्टाचार के सूत्र तलाशे हैं। उन्होंने इस बात की खोज की है कि आखिर ये राजनेता इस तरह का व्यवहार सीखते कहां से हैं। उन्होंने पाया होगा कि स्कूल ही ऐसी जगह हो सकती है, जहां बच्चों के भीतर सामूहिकता की भावना, सामाजिक व्यवहार और एकता के वे उदाहरण सीखते हैं, जो उच्च नेताओं में हमें राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई पड़ते हैं। तो नतीजा यही कि भ्रष्टाचार भी हमें एकसूत्र में पिरोता है!

(साभार:  दैनिक जनवाणी,  10.10.2021)

Wednesday, 10 November 2021

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंधों में बाल-मनोविमर्श: डॉ. प्रदीप त्रिपाठी

    निबंधों की दुनिया में आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक बड़े हस्ताक्षर हैं। शुक्ल जी ने अपने निबंधों के केंद्र में ऐसे विषयों को रखा है जो अब तक निबंध-साहित्य की परिधि से या तो बाहर रहे हैं अथवा कम चर्चा में रहे हैं। चिंतामणि भाग-1 में संकलित भाव या मनोविकार संबंधी निबंध (उत्साह, श्रद्धा-भक्ति, करुणा, लज्जा और ग्लानि, लोभ और प्रीति, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध आदि) इस बात के पुख़्ता गवाह हैं। हालांकि इससे पहले प्रतापनारायण मिश्र ने चिंता’, सत्य’, न्याय’, विश्वास’, छल’, धोखा’, खुशामद जैसे विषयों पर कई निबंध लिखे हैं। इन निबंधों की विशेषता यह है इसमें उन्होंने बुरे समझे जाने वाले भावों अथवा विचारों के वैशिष्ट्य की चर्चा की है। यह कहा जा सकता है कि इन्हीं संकेतों को समझते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंधों में सभी मनोभावों की सामाजिक उपादेयता को बहुत ही बारीकी के साथ विश्लेषित करने का प्रयास किया है। शुक्ल जी के निबंधों का जीवन से गहरा तालमेल है। वह स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि भाव अथवा मनोविकार ही मानव जीवन के समस्त क्रियाकलापों के प्रवर्तक हैं।

     आचार्य रामचंद्र शुक्ल का चिंतन उनके समकालीन निबंधकारों से बिल्कुल भिन्न है। कुछेक निबंधों को छोड़कर देखा जाय तो शुक्ल जी मनोभाव संबंधी निबंधों की चर्चा बाल-मनोवृत्तियों से ही शुरू करते हैं। अपने पहले निबंध भाव या मनोविकार की शुरुआत भी उन्होंने इसी बात से ही की है। वे लिखते हैं- अनुभूति के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरंभ होता है। उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में आता है। बच्चे के छोटे से हृदय में पहले सुख और दुख की सामान्य अनुभूति भरने के लिए जगह होती है। पेट का भरा या खाली रहना ही ऐसी अनुभूति के लिए पर्याप्त होता है। जीवन के आरंभ में इन्हीं दोनों के चिह्न हँसना और रोना देखे जाते हैं पर ये अनुभूतियाँ बिल्कुल सामान्य रूप में रहती हैं, विशेष-विशेष विषयों की ओर विशेष-विशेष रूपों में ज्ञानपूर्वक उन्मुख नहीं होती।[1] निश्चित रूप से शुक्ल जी को अनुभूतियों के स्वरूप का सूक्ष्म ज्ञान है। उनका मानना है कि इन्हीं अनुभूतियों के विस्तार से भाव एवं मनोविकारों का जन्म होता है। बचपन से ही मनुष्य के अंदर यह वृत्तियाँ स्थायी भाव के रूप में पहले से ही विद्यमान होती हैं। एहसास के स्तर पर बच्चों के अंदर इन भावों की अभिव्यक्ति का अंतर भले ही क्यों न हो पर अनुभूति का स्तर एक जैसा ही होता है। उदाहरण के रूप में पेट का खाली होना। आचार्य शुक्ल ने जिन मनोभावों को केंद्र में रखा है उनका सीधा संबंध रस-शास्त्र से है। एक प्रकार से देखें तो इनका सरोकार रस से संबंध रखने वाले स्थायी भाव एवं संचारी भाव से है। यह सभी मनोभाव बच्चों के अंदर स्थायी रूप से विद्यमान होते हैं। हाँ, यह संभव है कि इन भावों का स्वरूप उनके अंदर प्रौढ़ भले ही न हो लेकिन समय सापेक्ष इनका विकास बहुत ही तीव्र गति से होता है। घृणा, करुणा, लज्जा, उत्साह जैसे भाव इस बात के सशक्त उदाहरण हैं।

     आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि सुख और दुख की मूल अनुभूति से ही इन मनोभावों को विस्तार मिलता है। शुक्ल जी ने अपने निबंधों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या से कहीं ज्यादा व्यावहारिक व्याख्या की है। उदाहरण के रूप में क्रोध निबंध के इन पंक्तियों को देखा जा सकता है- तीन-चार महीने के बच्चे को कोई हाथ उठाकर मार दे, तो उसने हाथ उठाते तो देखा है पर अपनी पीड़ा और उस हाथ उठाने से क्या संबंध है, यह वह नहीं जानता। अतः वह केवल रोकर अपना दुख मात्र प्रकट कर देता है। दुख के कारण की स्पष्ट धारणा के बिना क्रोध का उदय नहीं होता।... शिशु अपनी माता की आकृति से परिचित हो जाने पर ज्योंही यह जान जाता है कि दूध इसी से मिलता है, भूखा होने पर वह उसे देखते ही अपने रोने में कुछ क्रोध का आभास देने लगता है।[2] शुक्ल जी ने इस बात की ओर संकेत किया है कि बच्चों के अंदर कार्य-कारण-संबंध जैसी प्रवत्तियों का बोध भले ही न हो लेकिन उनके हाव-भाव से यह आसानी से पता चल जाता है कि वह किस मनोस्थिति में हैं। निश्चित रूप से बच्चे को यह पता नहीं चल पाता कि वह क्रोध या गुस्सा कर रहा है। बच्चे की भूख या उसके रोने का एहसास स्वतः उसके मनोभावों को व्यक्त कर देते हैं। शुक्लजी किसी भी विषय-वस्तु का विश्लेषण सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों स्तरों पर करते हैं, यह उनके चिंतन पक्ष की बड़ी खूबी है।  

     शुक्ल जी के निबंधों का सरोकार मनोवैज्ञानिक कम समाजशास्त्रीय अधिक है। आचार्य शुक्ल ने अपने निबंधों के बहाने बाल-मनोभावों से जुड़ी कई महत्वपूर्ण एवं सूक्ष्म वृत्तियों पर फोकस किया है। निबंधों में उद्धृत मनोभावों को यदि हम बाल-मनोविमर्श के आलोक में देखें तो इसमें शुक्ल जी ने मुख्यतः दो तरह की कोटियों की चर्चा की है। उनके अनुसार कुछ ऐसे मनोभाव होते हैं जो बच्चों में बचपन के दो वर्षों के भीतर ही स्पष्ट रूप में दिखने लगते हैं जैसे- प्रेम, प्रसन्नता, क्रोध, भय, ईर्ष्या, घृणा आदि। दूसरे वे जिनका विकास समय-सापेक्ष होता है या हम यूं कहें कि बच्चों में ये भाव तब दिखते हैं जब उन्हें थोड़ा-थोड़ा नैतिकता एवं सामाजिकता का बोध होने लगता है। उदाहरण के रूप में हम लज्जा और ग्लानि जैसे मनोभावों/मनोविकारों को इस श्रेणी के अंतर्गत रख सकते हैं। स्पष्ट है बच्चे में लोभ अथवा प्रीति का भाव जितना जल्दी आ सकता है उतना जल्दी श्रद्धा अथवा ग्लानि का नहीं। बच्चों के जीवन का कोई ऐसा क्षण नहीं होता जब वे किसी न किसी न किसी भाव अथवा संवेग का अनुभव न करते हों। बच्चे कुछ भावों का बोध अपने व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा करते हैं तो कुछ अनुकरण के द्वारा।

     आचार्य शुक्ल का मानना है कि बच्चों के अंदर कुछ भाव सहज रूप में पहले से ही विद्यमान होते हैं। शुक्ल जी ने इन मनोभावों की चर्चा अपने निबंध करुणा, ईर्ष्या, क्रोध, घृणा एवं भय आदि में विस्तार से की है। उन्होंने अपने निबंध करुणा में सहज मनोवृत्तियों की चर्चा करते हुए लिखा है कि- जब बच्चे को संबंध ज्ञान कुछ-कुछ होने लगता है तभी दुख के उस भेद की नींव पड़ जाती है जिसे करुणा कहते हैं। बच्चा पहले परखता है कि जैसे हम हैं वैसे ही ये और प्राणी भी हैं और बिना किसी विवेचना क्रम के स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा, वह अपने अनुभवों का आरोप दूसरे प्राणियों पर करता है। फिर कार्य-कारण-संबंध से अभ्यस्त होने पर दूसरों के दुख या कार्य को देखकर उनके दुख का अनुमान करता है और स्वयं एक प्रकार का दुख अनुभव करता है। प्रायः देखा जाता है कि जब माँ झूठ-मूठ ऊँ-ऊँ करके रोने लगती है तब कोई-कोई बच्चे भी रो पड़ते हैं। इसी प्रकार जब उनके किसी भी भाई या बहिन को कोई मारने उठता है तब वे कुछ चंचल हो उठते हैं।[3] चर्चित मनोवैज्ञानिक जे. वी. वाटसन ने भी बच्चों के मनोभावों पर व्यवस्थित विचार व्यक्त किए हैं। उनका मानना है कि भय, प्रेम तथा क्रोध यह तीन ही ऐसे मनोभाव हैं जो बच्चों के भीतर जन्म से ही पाए जाते हैं। ध्यातव्य है इन तीनों मनोवृत्तियों पर शुक्ल जी ने भी अपने निबंधों में विधिवत बातचीत की है।   

     एक प्रकार से देखें तो बाल-मनोविज्ञान शुक्ल जी के निबंधों का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। उन्होंने इन भावों अथवा मनोविकारों को समाज-मनोविज्ञान की कसौटी पर परखने की कोशिश की है। निश्चित तौर पर शुक्ल जी के निबंधों में बाल-मनोविमर्श से जुड़े ऐसे तमाम सूक्ष्म पहलू हैं जिन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

 

संदर्भ ग्रंथ सूची

[1]  चिंतामणि (भाग-1), रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-1

[2] चिंतामणि (भाग-1), रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-81

[3] चिंतामणि (भाग-1), रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-27


सहायक ग्रंथ सूची

1.  शुक्ल, रामचंद्र. (2009), चिंतामणि. वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन.

2.शर्मा, रामविलास. (2009). आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.

3.  सिंह, ओमप्रकाश (संपा.). (2012). आचार्य रामचंद्र शुक्ल वैचारिक परिभूमि. नई दिल्ली: प्रकाशन संस्थान.

4.   लाल, जे. एन., श्रीवास्तव (संपादक). (2013). नवीन विकासात्मक मनोविज्ञान. आगरा: अग्रवाल पब्लिकेशन

5.  चतुर्वेदी, रामस्वरूप. (2014). हिंदी गद्य विन्यास और विकास. इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन

6.  मधुकर, महेंद्र. (1987). आचार्य शुक्ल का आलोचनाशास्त्र. दिल्ली: मंजुल प्रकाशन.

   

लेखकीय परिचय: संपादक कंचनजंघा एवं सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय


Sunday, 27 June 2021

हिंदी सिनेमा के गीतों पर केंद्रित मैनेजर पांडेय से प्रियंका की बातचीत

 सिनेमा और सिनेमा के गीतों के विषय में आपकी क्या राय है ?

बारीक बात बाद में। मुझसे एक बार फ़िल्मीं जगत के अनुभव सुना रहे थे कमलेश्वरतो मैंने पूछा कि अब आपने फ़िल्मों के लिए लिखना छोड़ा क्यूँ तो कमलेश्वर बोले कि जब तक मैं उसमें अपने को सहज महसूस करता था तब तक तो रहना ठीक लगा लेकिन अब... उन्होंने कहा कि गीत से लेकर संवाद तक डायरेक्टर मुझसे कहते थे कि कोई ऐसी सिचुएशन क्रिएट कीजिये जिसमें कि हीरोइन को कमर लचकाने का मौका होतो उन्होंने कहा कि मैंने छोड़ दियाये मुझसे नहीं होगा । ये तो हो गयी मोटी बातअब बारीक़ बात- मैं यह कहता हूँ कि फ़िल्मी गीत लिखने की प्रक्रिया में डायरेक्टर का हाथ अधिक रहता है । ऐसे कम गीतकार हैं, जैसे कैफ़ी आज़मी थेसाहिर लुधियानवी थेशैलेन्द्र थे वगैरह-वगैरह जो कि तीन स्थितियों से गुजरने के बाद गीत लिखते थे- पहला- कहानी सुनते थे और तब तय करते थे कि हम इसमें रहेंगे या नहीं रहेंगे । अब मान लो की कहानी ही दो कौड़ी की हो तो उसमें कोई गीत या संवाद क्या लिखेगा ! दूसरा- सिचुएशन को देखते थेकि फ़िल्म में दृश्य क्या हैउसके अनुसार अगर स्वीकार कर लिया तो गीत लिखते थे । तीसरी बात ये है कि गीतों के दो स्रोत हैं – एक देशभर की हर मातृभाषा में लोकगीत होते हैं जितने भी गंभीर लेखक और सीरियस गीतकार हैं वो उन लोकगीतों की मदद से अपने गीत रचते थे जो की शैलेन्द्र के यहाँ बहुत है । ध्यान देने की बात ये भी है कि शैलेन्द्र पहले इप्टा में थेरेलवे में एम्प्लॉय भी थे । तो इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े होने के कारण उनका एक प्रगतिशील दृष्टिकोण था । ये उनकी कविताओं से साबित होता है और गीतों से भी साबित होता है । शैलेन्द्र दो स्रोतों से अपने गीतों की रचना की सामग्री जुटाते थे- एक लोकजीवनलोकचेतना और लोकगीत । दूसरा सोच विचार की प्रक्रिया सेजीवन जगत के बारे में अपने अनुभव से । इससे उनके गीतों का स्वरुप बनता था । अब यह तो हर फ़िल्मी गीतकार की मजबूरी है और उसका गुण भी कि गीत ऐसा लिखे जो सहज हो । शैलेन्द्र तो कवितायें भी वैसी ही लिखते थेइसलिए कवि शैलेन्द्र और गीतकार शैलेन्द्र में बुनियादी एकता  है ।

कवि और गीतकार शैलेन्द्र को साहित्य में तो फिर भी कभी पहचान नहीं मिल पाई जबकि उन्होंने गीत भी वैसे ही लिखे जैसी कि वे कवितायें लिखते थे ।
शैलेन्द्र के कुछ गीत ऐसे भी हैं जो उनके पहले के गीत हैं वो फ़िल्मों के लिए नहीं लिखे थे उन्होंनेजैसे – ‘तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में  यकीन कर’ ये गीत बहुत पहले का हैबाद में किसी फ़िल्म में फिट किया गया है ।

जब तक वे प्रलेस में थेइप्टा से जुड़े हुए थे तब तक सहित्य में उन्हें जाना गयाजैसे ही उन्होंने सिनेमा के लिए गीत लिखना शुरू किया साहित्य जगत से वे अलग-थलग क्यों कर दिये गये ? उनके इन गीतों को साहित्यिक महत्त्व का क्यों नहीं माना गया ? 
कवि के रूप में भी मेरी जानकारी में शैलन्द्र पर किसी आलोचक ने लेख तो छोड़ो उनका उल्लेख तक नहीं किया । ये अलग बात है कि जब वे इप्टा में थे तो उनके गीत सम्मेलनों में गाए जाते थे । फिर उनका एक संग्रह भी छपा ‘न्यौता और चुनौतियाँ’ नाम सेलेकिन फ़िल्मीं गीतों के साथ दिक्कत ये है कि हिंदुस्तान में साहित्य और सिनेमा के बीच गंभीर सम्बन्ध कभी विकसित ही नहीं हुआ उदाहरण के लिए मुझे दो भाषाओं की फ़िल्मों का थोड़ा ज्ञान है हिंदी के आलावाबंगला और मलयालम का । बंगला में फिल्म वाले जो लोग थेवे स्वयं साहित्यकार थे और साहित्य में उनकी चर्चा कई तरह से होती हैयही स्थिति थोड़ी-थोड़ी मलायलम फ़िल्मों में भी है लेकिन हिंदी में यह प्रवृति नहीं है । मूल बात ये है कि हिंदी में फ़िल्मों और साहित्य के बीच गंभीर संवाद और सम्बन्ध की स्थिति कभी बनी ही नहीं । तो उसका परिणाम यह हुआ कि जो फ़िल्मों के लिए गीत लिखते थे उनको साहित्य वाले महत्त्व नहीं देते थेउनकी चर्चा भी नहीं करते थे और जो गीतकार थे फिर वे भी धीरे-धीरे साहित्य की दुनिया से कटने लगे । शैलेन्द्र भी इस प्रक्रिया का शिकार हुए क्योंकि यह एक व्यापक प्रक्रिया फिल्म और साहित्य के बीच सम्बन्ध के आभाव की है । उसके शिकार वे भी हुएसाहिर लुधियानवी भी हुएमजरूह सुल्तानपुरी भी हुए और बहुत सारे लोग हुए ।

आप सिनेमा के गीत सुनते हैं ? ऐसे कुछ गीत जो आपको पसंद हों ?
गीत अलग से तो मैं नहीं सुनता लेकिन जो फ़िल्में देखी हैं उनमें जो गीत सुने हैं वह भी तो गीत सुनना ही हुआ ना । ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’ यह गीत है शैलेन्द्र का इस गीत को पढ़कर ही लगता है कि जैसे कबीर का गीत हो ‘चिठिया हो तो हर कोई बाँचे हाल ना बाँचे कोय’ ये लगभग उसी अंदाज़ का गीत है जो कबीर का है मीरा का है । ‘तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर’ अब यह मजदूर संगठन का गीत हैज़िन्दगी के संघर्ष में उम्मीद जगाने वाला गीत है । कौन कवि किधर से शब्दावलीभाषाप्रेरणा लेता है इससे भी गीतों का साहित्यिक महत्त्व बनता है । अच्छाऐसे भी गीत हैं जो फिल्म में अच्छे लगे लेकिन बाहर वो उतने अच्छे नहीं लगे । माने टेक्स्ट के रूप में । “प्यासा” फ़िल्म का एक गीत है -  ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ । यह गीत जब फिल्माया गया तब तो बहुत प्रभावशाली हैलेकिन अलग से यह गीत लेकर पाठ के रूप में पढ़ें तो वो उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगेगा । इसलिए गीत की साहित्यिकता तय करते हुए यह ध्यान में रखना होगा कि संगीत के साथ होने पर उसकी साहित्यिकता ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या संगीत और दृश्य के साथ । कभी-कभी फ़िल्मी गीतों को महत्त्वपूर्ण बनाने में संगीतकारों का भी बहुत महत्त्व रहा जैसे खय्याम हैंनौशाद हैं ।

आपको नहीं लगता की साहित्य में इन सिनेमा के गीतों पर भी चर्चा होनी चाहिए ?                   
बिलकुल होनी चाहिए । क्यों नहीं होनी चाहिए !

तो क्यों नहीं हुई या होती  ?
अब क्यों नहीं होती ये तो वही जाने जो नहीं करते !

आपको नहीं लगता की आलोचकों को इस और ध्यान देना चाहिए ?
ओह हो! मैंने तो कहा न तुमसे कि शैलेन्द्र का तो लोग उल्लेख तक नहीं करतेमैंने तो लेख लिखा है उनपर । तो अब मैं क्या कह सकता हूँ !

भाषा के स्तर पर हिंदी को समृद्ध करने का कामदेशों-विदेशीं तक पहुचांने का काम हिंदी सिनेमा के गीतों ने किया आपकी क्या राय है ?
ये कोई साहित्यिक महत्त्व नहींयह भाषा के स्तर पर है इससे साहित्य का कोई प्रतिमान या आधार तो नहीं बनेगा ! इंग्लिश स्पीकिंग एरिया में भी हिंदी को पहुँचाने का काम फ़िल्मीं गीतों ने किया है तो ये भाषा के स्तर पर उनका योगदान हैपर साहित्यिक मामला यह नहीं है ।

जिस प्रकार कविताओं की आलोचनाएँ या चर्चाएँ होती हैंउसी प्रकार गीतों पर भी चर्चा हो तो आपको नहीं लगता कि उनका स्तर और अधिक सुधर सकता है ?
किसी भी चर्चा से गीतों का स्तर सुधर नहीं सकताक्योंकि वो सारा व्यवसाय का मामला है । गीतकार निर्देशक के जब इस इशारे पर गीत लिखेगा की एक्ट्रेस नाचे- कूदे ,कमर लचकाए तो गीतकार भी ऐसे ही गीत लिखेगा ना । क्योंकि उसको पैसा मिलना है । फ़िल्म का सारा माध्यम एक भारी व्यवसाय है । व्यावसायिकता ने घुसकर हर चीज़ को नष्ट किया है । सिनेमा के गीतों पर ऐसा नहीं है कि तुम पहली हो जो काम कर रही होइससे पहले भी विभिन्न विश्वविद्यालयों में फ़िल्मीं गीतों पर काम हुआ है । थोडा काम तो हुआ है लेकिन चूँकि साहित्य में इसकी चर्चा नहीं होतीपत्र-पत्रिकाओं में नहीं होतीआलोचनाओं में नहीं होती तो तुम थीसिस लिखोगी और उसके दो ही हश्र हो सकते हैं- या तो पड़ी रहे लाइब्रेरी में और तुम्हारे पास होनहीं तो छप जाये और दो चार मित्र लोग पढ़ लें । इसलिए खाली रिसर्च से वो संवाद नहीं बन पातानहीं तो रिसर्च तो बहुत लोगों ने किया है ।

पुराने गीतों और नए गीतों में कोई बुनियादी अंतर जो आपको लगता  हो ?
आज के निन्यानवे प्रतिशत गीत रद्दी हैं । पुराने गीत-संगीतफ़िल्म तक सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिखे जाते थे आज तो कुछ भी नहीं है । हाल के वर्षों में अधिकांश फ़िल्में देखना मैंने बंद कर दिया है । पुरानी फ़िल्में हर दृष्टि से बेहतर हैं गीतों की दृष्टि सेलिखने वालों की दृष्टि सेसंगीत की दृष्टि से । आज तो संगीत के नाम पर म्यूजिक कम और शोर ज्यादा है । 


साभार: 

(http://jomanmeinaya.blogspot.com/2016/06/blog-post_21.html?m=1)

Friday, 14 May 2021

विश्व रेड क्रॉस संगठन की प्रासंगिकता बढ़ी है...

        रेड क्रॉस एक ऐसा आपातकालीन प्रतिक्रिया संगठन है जो दुनिया भर में युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं के शिकार लोगों के लिए मानवीय सहायता प्रदान करता है। इन्टरनेशनल कमेटी ऑफ रेड क्रॉस और कई नेशनल सोसायटी इसका संचालन करती हैं। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि विश्व के लगभग 210 देश इस संस्था से संबद्ध हैं। निष्पक्षता, मानवता, स्वतंत्रता, तटस्थता, एकता, स्वैच्छिक सेवा एवं सार्वभौमिकता रेड क्रॉस सोसायटी के सात प्रमुख सिद्धान्त हैं। जरूरतमंद लोगों की सेवा के लिए तत्पर स्वयंसेवकों के अभूतपूर्व योगदान का सम्मान करना भी रेड क्रॉस के उद्देश्य में शामिल है। 

यह एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, इसका मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जिनेवा में स्थित है। रेडक्रॉस के जनक जीन हेनरी ड्यूनेंट का जन्म 8 मई, 1828 को हुआ था। उनके जन्मदिन को ही दुनिया भर में हर वर्ष विश्व रेड क्रॉस दिवस के रूप में मनाया जाता है। दरअसल यह दिवस मानव सेवा के लिए प्रेरित करने वाला एक ऐतिहासिक उपक्रम है। संगठन की महत्त्वपूर्ण गतिविधियों से आम जनमानस को परिचित करावाना भी रेड क्रॉस दिवस के मूल में है।

सभी देशों में रेडक्रॉस संगठनों को विस्तार देना एवं उसके आधारभूत सिद्धांतों का संरक्षण करना अंतरराष्ट्रीय रेडक्रॉस सोसायटी का मूलभूत लक्ष्य है। यह संगठन मुख्य रूप से युद्ध के समय बीमार और जख़्मी लोगों की देखभाल के लिए स्थापित किया गया था, वक्त के साथ अन्य आपातकालीन परिस्थितियों में भी इसके दायित्वों का विस्तार होता चला गया। वर्तमान में रेड क्रॉस एजेंसियां ब्लड बैंक से लेकर विभिन्न तरह की स्वास्थ्य सेवाओं में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। मानवता की हिफाज़त करना रेड क्रॉस संगठन का पहला और अंतिम मकसद है। उल्लेखनीय है, आपातकालीन परिस्थितियों में समाज के कमजोर, असहाय और गरीब वर्ग को विशेष आर्थिक सहायता प्रदान करने में भी रेड क्रॉस समितियां आज पूरी निष्ठा के साथ तत्पर हैं। 

मानवीय जीवन और स्वास्थ्य की सुरक्षा के मिशन के साथ वर्ष 1863 में स्थापित संगठन रेड क्रॉस अपने वॉलेंटियर वर्क यानी स्वयंसेवा के लिए जाना जाता है। लगभग 150 वर्षों से पूरे विश्व में रेडक्रॉस के स्वयं सेवक असहाय एवं पीड़ित मानवता की सहायता के लिए काम करते आ रहे हैं। वैश्वीकरण के इस दौर में परमाणु हथियारों पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए युद्ध की बढ़ती आशंकाओं और समय-समय पर भूकंप, तूफान और अन्य अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाओं जैसी मुश्किल हालात से निपटने में अंतरराष्ट्रीय रेडक्रॉस जैसी संस्था का महत्व आज और अधिक बढ़ गया है। शांति और सौहार्द के प्रतीक के रूप में इस संस्था ने अपने कर्मठ, समर्पित और कर्त्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवकों के माध्यम से पूरे विश्व में अपनी एक अलग पहचान बना ली है।

दुनिया भर में समय-समय पर युद्ध एवं भीषण प्राकृतिक आपदाएँ आती रही हैं, इसकी वजह से हजारों-लाखों लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी जिनको देखने-सुनने वाला कोई संगठन नहीं था। ऐसी स्थिति में मानवता की रक्षा के लिए हेनरी ड्यूनेंट ने ऐसा काम किया जो आज भी हमारे समक्ष एक मिसाल है। वर्ष 1901 में हेनरी ड्यूनेंट के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें पहला नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया।

विश्व रेड क्रॉस दिवस की चर्चा के क्रम में इस संस्था के गठन एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जान लेना हमारे लिए आवश्यक है। जीन हेनरी ड्यूनेंट 1859 में फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय की तलाश में गए थे। उन दिनों अल्जीरिया पर फ्रांस का कब्जा था। ड्यूनेंट को उम्मीद थी कि अल्जीरिया में व्यापारिक प्रतिष्ठान खोलने में नेपोलियन उनकी मदद करेंगे लेकिन ड्यूनेंट को सम्राट नेपोलियन से मिलने का मौका नहीं मिला। उसके बाद वह इटली गए, जहां उन्होंने 1859 में फ्रांस और ऑस्ट्रिया के मध्य सोल्फेरिनो का युद्ध देखा। उन्होंने देखा कि इस युद्ध में एक ही दिन में 40,000 से ज्यादा सैनिक मारे गए और लाखों घायल हुए। इस बात को हेनरी ने बहुत ही करीब से महसूस किया कि युद्ध में मारे गए हजारों सैनिकों और घायलों की देखभाल के लिए किसी भी प्रकार की चिकित्सकीय सुविधा नहीं है, इस घटना से हेनरी बहुत ही आहत हुए। उन्होंने तत्काल वहाँ स्वयं सेवकों के एक समूह को संगठित किया, और घायलों की हर संभव मदद की। हेनरी ने स्वयं घायलों का उपचार किया साथ ही उनके परिवार के लोगों को पत्र भी लिखा। इस घटना के 3 साल बाद ड्यूनेंट ने अपने दु:खद अनुभवों को एक पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया। पुस्तक का नाम था ‘अ मेमरी ऑफ सोल्फेरिनो’। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में युद्ध की त्रासद स्थितियों का वर्णन करते हुए उससे उपजे संकटों पर अपनी गहरी चिंता जाहिर की। पुस्तक के अंत में हेनरी ने एक स्थायी अंतरराष्ट्रीय सोसायटी की स्थापना का सुझाव भी दिया। ऐसी सोसायटी जो युद्ध में घायल लोगों का इलाज कर सके और भीषण आपदा से निपटने में मददगार हो। आगे चलकर उन्होंने 1863 में इंटरनेशनल कमेटी ऑफ द रेड क्रॉस की स्थापना की। 

वर्ष 1863 में रेड क्रॉस अंतरराष्ट्रीय सोसायटी की पहली बैठक हुई, इस बैठक में कुल 05 सदस्यों ने सहभागिता की। संस्था के गठन के एक वर्ष के भीतर अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस सोसायटी ने यूरोप के कई देशों और वहाँ के अन्य सामाजिक संगठनों को‘ड्यूनेंट प्रस्ताव’प्रेषित किया। मानवीय मूल्यों की रक्षा के प्रति समर्पण को देखकर जीन के इस प्रस्ताव को व्यापक फ़लक पर समर्थन मिला। हेनरी के इस प्रस्ताव को ध्यान में रखते हुए दुनिया के तमाम देशों एवं सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने जिनेवा में कई महत्त्वपूर्ण सम्मेलन भी आयोजित किए। इन बैठकों में युद्धबंदियों के अधिकारों, सैन्य सुरक्षा एवं मूलभूत संरक्षण को लेकर विस्तार से चर्चा हुई और अगस्त 1864 में पहला जिनेवा समझौता संपन्न हुआ। इस समझौते पर आरंभ में 12 मुल्कों ने हस्ताक्षर किए। अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस सोसायटी के अनुसार इस समझौते का मूल उद्देश्य राष्ट्रीयता की परवाह किए बिना युद्ध में घायल और बीमार सैनिकों को सुरक्षा व्यवस्था उपलब्ध कराना था। इसके तहत चिकित्सा कर्मियों, धार्मिक एवं जरूरतमंद लोगों के लिए चिकित्सा परिवहन की सुविधा के लिए भी आश्वस्त किया गया।     

राजसभा टीवी की एक रिपोर्ट के अनुसार देखें तो- “यह संस्था सशस्त्र हिंसा और युद्ध में पीड़ित लोगों और युद्धबंदियों के लिए काम करती है। यह उन क़ानूनों को प्रोत्साहित करती है जिससे युद्ध पीड़ितों की सुरक्षा होती है। सफेद पट्टी पर लाल रंग का क्रॉस का चिन्ह इस संस्था का निशान है। यह चिन्ह पूरी दुनिया में मानवता की सेवा करने का प्रतीक बन गया है। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य युद्ध के दौरान घायल सैनिकों की मदद और चिकित्सा करना है। यह संस्था शांति और युद्ध के समय दुनिया भर के विभिन्न देशों की सरकार के बीच समन्वय का कार्य करती है। रेड क्रॉस सोसायटी के दुनिया भर में एक करोड़ सत्रह लाख से अधिक सक्रिय स्वयं सेवक हैं, रेड क्रॉस का सबसे बड़ा धर्म है- मानव सेवा। रेड क्रॉस पूरी दुनिया में शांति और सौहार्द को कायम करने वाली संस्था के रूप में प्रसिद्ध है।” 

मौजूदा समय में रेड क्रॉस का दायित्व और भी बढ़ गया है। पूरी दुनिया कोरोना महामारी के भयावह संकट से जूझ रही है। ऐसे वैश्विक संकट के सफ़र में हमने बहुत कुछ खो दिया है। संकट चाहे किसी भी तरह का हो, इस तरह की  आपदाओं से समाज का कमजोर तबका ही सबसे अधिक प्रभावित होता रहा है। ऐसी स्थिति में वैश्विक महामारी के इस दौर में रेड क्रॉस संस्था की प्रासंगिकता एवं महत्त्व को दुनिया भर ने स्वीकारा है। कोरोना जैसी भीषण महामारी में भी इस संस्था के स्वयं सेवक अपनी परवाह किए बगैर मानवता की रक्षा के लिए एकजुट हैं, ऐसे निःस्वार्थ सेवियों की जितनी सराहना की जाय कम है। “विपत्तियाँ ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ सामने लाती हैं।” भीषण महामारी में फ्रांसिस बेकन के इस कथन को रेड क्रॉस सोसायटी ने और भी पुख़्ता किया है। 

उल्लेखनीय है, रेड क्रॉस की पहल पर 1937 में विश्व का पहला ब्लड बैंक अमेरिका में खुला। आज विश्व में तमाम ब्लड बैंक से जुड़ी संस्थाओं का संचालन रेड क्रॉस और उनकी सहयोगी संस्थाओं जरिये किया जा रहा है। रक्तदान जैसे महत्त्वपूर्ण जागरुकता अभियान को विस्तार देने में रेड क्रॉस सोसायटी की भूमिका हमेशा से अहम रही है। भारतीय रेड क्रॉस सोसायटी से जुड़े सदस्य आर. के. जैन का मानना है कि “रेड क्रॉस का दायरा काफी बढ़ता जा रहा है। आज की तारीख में रेड क्रॉस सिर्फ कान्फ्लिक्ट और वॉर की बात नहीं करता, हम उन सभी स्थितियों की बात करते हैं जिसमें मानवीय सहायता की जा सके।” एक प्रकार से देखें तो युद्ध, स्वास्थ्य और आपदा इन तीनों क्षेत्रों में रेड क्रॉस अपनी अहम भूमिका निभाता रहा है। 

रेड क्रॉस एक विचार है, ऐसा विचार जिस पर दुनिया के तकरीबन दो सौ से अधिक देशों के लोग एकमत हैं, जो पूर्णतया मानवता के लिए समर्पित है। आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संगठन दुनिया के किसी भी क्षेत्र में संघर्षरत पीड़ितों के लिए सुरक्षा और सहायता सुनिश्चित कराने के लिए प्रतिबद्ध है। मानवीय सुरक्षा ही इस संस्था का मुख्य ध्येय है। यह एक ऐसा गैर सरकारी संगठन है जो विश्व की किसी भी आपदा से निजात पाने के लिए तैयार रहता है। रेड क्रॉस संगठन किसी भी प्रकार के भेदभाव से परे ऐसी इकाई है जिसका गहरा सामाजिक सरोकार है, भावनात्मक स्तर पर यह संगठन समरसता एवं सामंजस्य का अनूठा दृष्टांत है। उक्त संदर्भ में हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल की कविता का उल्लेख बहुत ही समीचीन प्रतीत होता है: “मैं चाहता हूँ स्वाद बचा रहे/ मिठास और कड़वाहट से दूर/ जो चीज़ों को खाता नहीं है/ बल्कि उन्हें बचाए रखने की कोशिश का एक नाम है/ एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है/ मसलन यह कि हम इंसान हैं/ मैं चाहता हूँ इस वाक्य की सच्चाई बची रहे।”

शरणार्थियों की हिफ़ाज़त करने उन्हें उनके गंतव्य तक पहुँचाने में इस संस्था की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। रेड क्रॉस संगठन जरूरतमंद और निर्दोष लोगों की सुरक्षा के लिए जाना जाता है। मानवाधिकार का उल्लंघन कोई भी देश न कर सके, इस दिशा में भी इस संगठन ने महत्त्वपूर्ण प्रयास किए हैं। 

भारत में दी इंडियन रेड क्रॉस सोसायटी की स्थापना 1920 में की गई। 03 मार्च 1920 को इससे संबंधित विधेयक विधान परिषद में पेश किया गया था। 17 मार्च, 1920 को विधेयक को पारित कर दिया गया, तत्कालीन गवर्नर जनरल की सहमति भी मिल गई और यह अधिनियम बन गया। 1950 में भारत ने जिनेवा कन्वेन्शन पर भी अपनी सहमति दर्ज कर दी। एक प्रकार से देखें तो रेड क्रॉस सोसायटी एक संस्था नहीं बल्कि आंदोलन है जो आरंभ से ही अपने उद्देश्यों को लेकर संघर्षरत है। मानवाधिकार कानून के गठन पर जोर देते हुए, इसे तत्काल प्रभाव से लागू करवाने में इस संगठन का महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप रहा है, यह कार्य रेड क्रॉस सोसायटी की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है। आज रेड क्रॉस संगठन दुनिया भर में आर्थिक सुरक्षा, पीने का पानी, जरूरतमंद को आवास, शिक्षा, रक्तदान शिविरों का आयोजन, स्वास्थ्य एवं यौन शोषण के खिलाफ जागरुगता अभियान जैसे कई महत्त्वपूर्ण कार्यों को लेकर निरंतर सक्रिय है। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध में मारे गए हजारो लोगों एवं हताहत सैनिकों की मदद इसी संगठन के द्वारा की गई थी। आज दुनिया के लगभग सभी देशों में इसकी शाखाएँ हैं जो अपने उद्देश्यों के साथ सक्रिय हैं। संस्था के सदस्य निःस्वार्थ भाव से गांवों और शहरों में एंबुलेंस और दवाइयों की सुविधा उपलब्ध करवाते रहे हैं। रेड क्रॉस संस्था से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ता प्रो. ए के पाशा ने संस्था के समक्ष आ रही चुनौतियों एवं उसकी उपलब्धियों के संदर्भ में महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए एक साक्षात्कार में बताया कि- “मौजूदा समय में दुनिया भर में कई नई समस्याओं ने जन्म ले लिया है। आतंकवाद और युद्ध के दरमियान मारे गए लोगों के शवों की पहचान के लिए रेड क्रॉस संगठन ने फॉरेंसिक साइंस के जरिये नई तकनीकी का इस्तेमाल कर मदद की है। इसके अलावा सम्मानजनक ढंग से उनकी अत्येष्टि की व्यवस्था का भी प्रावधान किया है। युद्धबंदियों को छुड़ाने में भी रेड क्रॉस सोसायटी की भूमिका भी अत्यंत सराहनीय है।” रेड क्रॉस संस्थान के अभूतपूर्व योगदान को ध्यान में रखते हुए इसे कर मुक्त कर दिया गया है। आज भारत में तकरीबन हजार के करीब रेड क्रॉस की शाखाएँ अपने उद्देश्यों को लेकर निरंतर सक्रिय हैं। 

किसी भी दिवस की सार्थकता उसके उद्देश्यों के प्रतिफलन एवं विस्तार में निहित है। आज हम बहुत ही भयावह और कठिन दौर से गुजर रहे हैं, हमारी जिम्मेदारियाँ पहले से कहीं अधिक बढ़ गई हैं। यह बात कहने में हमें जरा भी संकोच नहीं कि समय के साथ हमारी संवेदनाएं क्षीण होती जा रही हैं। समय है, प्रतिबद्धता के साथ आदमीयत को बचाए रखने का। आदमीयत बची रहेगी तो हम सब कुछ बचा पाने में कामयाब होंगे, यही इस दिवस की सार्थकता भी होगी।

परिचय: 

(डॉ. प्रदीप त्रिपाठी, संपादक कंचनजंघा & सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय, गंगटोक)

Friday, 30 April 2021

गीत और ग़ज़ल परंपरा के आधार स्तंभ थे कुँवर बेचैन

इस नए माहौल में जो भी जिया बीमार है/ जिस किसी से भी नया परिचय किया बीमार है/… रोग कुछ ऐसे मिले हैं शहर की झीलों को अब/ इनका पानी जिस किसी ने भी पिया बीमार है/ एक भी उम्मीद की चिट्ठी इधर आती नहीं/ हो न हो अपने समय का डाकिया बीमार है – कुँवर बेचैन की यह आवाज अब कभी सुनने को नहीं मिलेगी। यह स्वीकार कर पाना अविश्वसनीय है कि कुँवर बेचैन साहब अब हमारे बीच नहीं हैं। हर दिल अज़ीज़ शायर, गीतकार एवं कवि के रूप में कुँवर बेचैन का सार्थक हस्तक्षेप अविस्मरणीय है। ताउम्र अपने समय से मुठभेड़ करते हुए कुँवर बेचैन व्यवस्था विडम्बना पर टिप्पणी करते रहे। आम आदमी की पीड़ा एवं जन सरोकार कुँवर बेचैन की रचनाओं का केंद्रीय बिन्दु रहा है। बेचैन की जिंदगी और शायरी दोनों का रंग बिल्कुल ही सादा है। एक प्रतिबद्ध कवि की तरह उन्होंने हमेशा समसामयिक मुद्दों पर कलम चलाने के खतरे उठाए। उनका जनवाद कहीं और से लिया या ओढ़ा हुआ नहीं वरन जमीनी हकीकत था। वास्तव में कुँवर बेचैन हमारे समय के बड़े कवि हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि उनकी कविताओं का कैनवास बड़ा है, इसलिए भी कि वे अत्यधिक संवेदनशील थे। कुँवर बेचैन ने अपनी रचनाओं में समाज के हर पक्षों को उठाया है। कुँवर बेचैन आजाद भारत के उन हस्ताक्षरों में से एक हैं जिन्होंने हिंदुस्तान में अमीर को अमीर और गरीब को गरीब होते देखा। आजादी के बाद की व्यवस्था का विरोध एवं मोहभंग ही उनकी कविता का मूल स्वर है। इस संदर्भ में बेचैन सीधे धूमिल की परंपरा से जुड़ते हैं। वे जनकवि इसलिए नहीं हैं कि उनकी कविताएं जनता की जुबान पर चढ़ चुकी हैं बल्कि इसलिए कि वे निरंतर हाशिये के समाज के बारे में सोचते और लिखते रहे। अपनी एक कविता में वह लिखते हैं- जो डर जाते हैं डर जाने से पहले/ वो मर जाते हैं मर जाने से पहले।

            कुँवर बेचैन को पढ़ते, सुनते और गुनते हुए हमारी पीढ़ी बड़ी हुई है। नदी पसीने की, दिन दिवंगत हुए, नदी तुम क्यों रुक गई, शामियाने काँच के, रस्सियाँ पानी की, दीवारों पर दस्तक आदि उनके महत्त्वपूर्ण ग़ज़ल एवं गीत संग्रह हैं। उनका वास्तविक नाम डॉ. कुँवर बहादुर सक्सेना है। साहित्यिक जगत में वे बतौर कवि, शायर व गीतकार कुँवर बेचैन नाम से जाने गए। गीतों और गजलों की दुनिया के बादशाह कुँवर बेचैन के जाने से साहित्य जगत पूरी तरह स्तब्ध है। बहुत ही दुख के साथ यह बात कहनी पड़ रही है, उनकी आवाज अब हम कभी नहीं सुन सकेंगे- कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े/ सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ। प्रिय कवि को आत्मीय श्रद्धांजलि। 

लेखक: प्रदीप त्रिपाठी
प्रकाशन : (जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ)