Sunday, 9 October 2022

‘भ्रष्टाचार’ भी हमें एकसूत्र में पिरोता है वाया अरण्य रोदन : सुधांशु गुप्त

भारत को एकसूत्र में पिरोने वाली बहुत सी चीजें हैं और हो सकती हैं। यहां की विविधता, नदियां, पहाड़, जंगल, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और बहुत से पर्यटन स्थल। ये सब हमें कहीं न कहीं जोड़ते हैं। यहां का प्राणी, यहां की वाणी और सबसे अहम यहां रहने वाले लोगों का व्यवहार, कमोबेश यकसां ही होता है। कम से कम व्यवहार के बारे में तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है। मिसाल के तौर पर राजनीतिक चरित्र और व्यवहार पूरे भारत में एक ही जैसा है। साफ शब्दों में कहा जाए तो भ्रष्टाचार के प्रति हम भारतीयों की जो आस्था है, उसकी प्रकृति हो सकता है अलग-अलग राज्यों में अलग हो लेकिन यह आस्था पाई हर जगह जाती है। आजादी के बाद से लेकर अब तक इस प्रवृति में कोई मूलभूत अंतर नहीं आया है। सिक्किम से हिन्दी में लिखा गया पहला उपन्यास है ‘अरण्य रोदन’।

सुवास दीपक ने इसे लिखा है। इस उपन्यास का पहला संस्करण 1985 में संभावना प्रकाशन से छपा था। यह वह समय था जब भ्रष्टाचार को हम भारतीय अपने व्यवहार में शामिल करना सीख रहे थे। इसका दूसरा संस्करण 2021 में आया है (संभावना प्रकाशन)। यानी इसके दूसरे संस्करण पर 35-36 साल का समय बीत चुका है। बावजूद इसके लगता यही है कि जो बातें 1985 में लिखी गईं, उनमें आज भी रत्तीभर फर्क नहीं आया है। यदि आप इसके प्रकाशन की तिथियों को भूल जाएं तो इस उपन्यास में दर्ज बहुत कुछ आपको आज जैसा ही दिखाई देगा। 

जाहिर है उपन्यास भ्रष्टाचार पर है। आजादी के बाद भ्रष्ट व्यवस्था किस तरह देश में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दिवालियेपन की विकलांग स्थिति पैदा कर रही है, वही इस उपन्यास का मूल है। भ्रष्ट राजनीति अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने के लिए कैसे घिनैने हथकंडे अपनाती है और बेईमान अफसरों और राजनेताओं के संसर्ग से उत्पन्न चमचावाद किस तरह पूरे तंत्र पर हावी होता जा रहा है, आज यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन यहां एक सवाल यह उठता है कि यह एकरूपता आखिर जन्म कहां से लेती है, नेताओं को भी यह सूत्र कहां से मिलता है? सुवास दीपक ने इसी सवाल का जवाब अपने ख़ास अंदाज में तलाशा है। प्रतीक के तौर पर उन्होंने स्कूल को चुना है। उन्होंने दिखाया है कि किस तरह अपने आपको सबसे अधिक शोषित-पीड़ित बताने वाला शिक्षक वर्ग किस तरह देश की भावी पीढ़ी का निर्माण कर रहा है।

स्टायरिकल अंदाज में लिखे इस उपन्यास में स्कूल है, शिक्षक हैं और पढ़ने वाले बच्चे हैं। शिक्षकों की आपसी मारकाट है, कुर्सी के प्रति मोह है, एक दूसरे को हलाल करने की तीव्र इच्छा है, पक्ष है, विपक्ष है, लड़कियों (अध्यापिकाओं) के प्रति उनकी कुदृष्टि है। और वह सब कुछ है जो संसद में हमारे राजनेता करते हैं। यहां तक की चंदा एकत्रित करना, जागरण करवाना, बच्चों को अध्यात्म की शिक्षा देना जैसे कृत्य भी हैं। स्कूल में जिस तरह बच्चों को अध्यात्म और राष्ट्रवाद का सबक पढ़ाया जा रहा है, उसके पढ़कर अचानक आपको मौजूदा समय दिखाई पड़ता है। सुवास दीपक का मानना है कि देश की संस्थाएं और संसदीय व्यवस्था दोनों एक ही पैटर्न पर चलती हैं। संसदीय व्यवस्था में जाने वाले लोग इन्हीं संस्थाओं से ट्रेनिंग लेकर जाते हैं। जाहिर है इसीलिए उनका चरित्र भी एक जैसा होता है। शिक्षण संस्थानों और संसदीय व्यस्था के दोनों ही वर्गों में कुर्सी से चिपकने का विशेष मोह होता है। आप आज के शिक्षण संस्थानों को देखेंगे तो पाएँगे कि आज भी स्कूलों में वेद के मंत्रों, जन गण मन को जबरदस्ती पढ़ाया जा रहा है। दिलचस्प बात है कि सुवास दीपक ने इस प्रवृत्ति को साढ़े तीन दशक पहले ही देख लिया और उसे उपन्यास का विषय बनाया। उन्होंने प्रधानाध्यपाकों-प्राध्यापकों की प्रवृत्ति को समय के कालचक्र और व्यवस्था को भी बहुत बारीकी से देखा और समझा है। संवेदनशील अध्य़ापकों की क्या स्थिति होती है इसका उल्लेख भी सुवास दीपक ने शानदार ढंग से किया है। उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें एक अध्यापक स्कूल में मैडम वर्सिस प्रधान अध्यापक के शीत युद्ध पर गंभीर चिंतन करना चाहता है। वह अपने घर में इस स्थिति पर कुछ सोच पाए उससे पहले ही एक आकाशवाणी होती हैः बरखुरदार, जिस गंभीर चिंतन में तुम अपनी डेढ़ पसली की देह को सुखा रहे हो वह निहायत बचकाना चिंतन है। तुम्हारी पाठशाला में जो कुछ हो रहा है वह प्रजातांत्रिक विचारों का प्रतिरूप है। लोकतंत्र में हमारी आस्था है। उसे तब तक जीवित रखना है, जब तक हम जिंदा हैं। हम जिंदा हैं इसलिए यह लोकतंत्र जिंदा है। जिस दिन लोकतंत्र मर जावेगा, उस दिन हम भी मर जावेंगे। उसी अध्यापक की अंतरात्मा फिर सवाल करती है कि क्या लोकतंत्र के मरने पर ही हमारा मरना निर्भर है। फिर आकाशवाणी होती हैः वत्स अक्ल से काम लो। चिंतन मत करो। जिस दिन तुमने सोचना शुरू किया, भारत में उथल पुथल हो जावेगी। तुम अपने काम में बिना सोचे समझे लगे रहो। देशभक्त बनो, बच्चों को निष्ठावान बनाओ। उन्हें अच्छे नागरिक के गुण सिखाओ। परनिंदा से दूर रहो। अपनी गौरवशाली गुरु परंपरा को कायम रखो।

सुवास दीपक का यह पूरा ‘दर्शन’ आज का ही ‘दर्शन’ है, जो कहता है कान और आँख बंद करके काम करो, तुम्हारी नियुक्ति सोचने के लिए नहीं हुई है, तुम्हें सिर्फ ‘ऊपर के आदेशों’ का पालन करने के लिए रखा गया। चाहे राजनीति हो, अध्यपान हो या अन्य कोई पेशा, सब जगह यही ‘दर्शन’ काम करता है और इस ‘दर्शन’ पर चलने वाले ही जीवन में सफल होते हैं।

अंत में उपन्यास का नायक कथा का विदूषक ‘मैं’ या ‘हम’ अकेला पड़ जाता है और स्कूल से इस्तीफा दे देता है। वह उपन्यास लिखकर इस अरण्य रोदन (ऐसा रुदन जिसे कोई सुनने वाला कोई न हो) में शामिल होता है। हिन्दी में स्टायरिकल शैली में लिखने वाले बहुत कम लेखक हैं, संभवतः मनोहर श्याम जोशी ऐसे लेखक थे जिनके लेखन में आपको स्टायर मिलेगा, अन्यथा स्टायर लिखना आसान काम नहीं है। सुवास दीपक भ्रष्टाचार के सूत्र तलाशे हैं। उन्होंने इस बात की खोज की है कि आखिर ये राजनेता इस तरह का व्यवहार सीखते कहां से हैं। उन्होंने पाया होगा कि स्कूल ही ऐसी जगह हो सकती है, जहां बच्चों के भीतर सामूहिकता की भावना, सामाजिक व्यवहार और एकता के वे उदाहरण सीखते हैं, जो उच्च नेताओं में हमें राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई पड़ते हैं। तो नतीजा यही कि भ्रष्टाचार भी हमें एकसूत्र में पिरोता है!

(साभार:  दैनिक जनवाणी,  10.10.2021)

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