“सुनूँ
क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युगधर्म का हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि
का, प्रलय गांडीव की टंकार हूँ मैं...”
भारतीय जनमानस के दमित आक्रोश को स्वर देने वाले रामधारी
सिंह दिनकर को युग कवि होने का गौरव प्राप्त है। दिनकर की रचनाशीलता का फ़लक न केवल
अत्यंत विस्तृत है बल्कि बहुआयामी भी है। उनके लेखन में अनुभूतियों विचारों और
शिल्प के जितने भी रूप उभरते हैं, उसे किसी वाद, विचारधारा या प्रवृत्ति में आबद्ध
नहीं किया जा सकता। दिनकर की रचनाओं में आत्मविश्वास, आशावाद, संघर्ष, राष्ट्रीयता एवं भारतीय संस्कृति का अद्भुत
समन्वय देखने को मिलता है। सही अर्थों में दिनकर चेतना एवं विश्वास के कवि हैं। हस्तक्षेप कवि का गुणधर्म है।
लगातार यह सवाल उठाया जाता रहा है कि क्या दिनकर का लेखन
उनके कवि मानस की सहज प्रवृत्ति है या किन्हीं दबावों से वह उनकी रचनाधर्मिता पर
आरोपित हुई है? समीक्षकों
द्वारा उन्हें युगचारण की भी संज्ञा दी गई। हालांकि इससे पूरी तरह से सहमत होना तो
संभव नहीं ही है पर कुछ हद तक खारिज करना भी असंगत जान पड़ता है। यदि हम समग्रता में दिनकर जी के व्यक्तित्व एवं
कृतित्व का मूल्यांकन करें तो पाएंगे कि उनका मूलभूत व्यक्तित्व एक प्रेमी का
व्यक्तित्व है। दिनकर ने स्वयं ‘चक्रवाल’ की भूमिका में लिखा है- “मेरी राष्ट्रीय
कविताओं और मेरे जीवन के बीच एक प्रकार की भिन्नता रही है...राष्ट्रीयता मेरे
व्यक्तित्व के भीतर से नहीं जन्मीं, उसने बाहर से आकर मुझे
आक्रांत किया। ” वास्तव में दिनकर की राष्ट्रीयता भाववादी राष्ट्रीयता है जिसमें
चिंतन की अपेक्षा आवेग और आक्रोश ही प्रधान है। गुलामी के परिवेश में अंग्रेजों के
शोषण की प्रतिक्रिया का शक्तिशाली रूप दिनकर के काव्य में दिखाई देता है। गौरतलब
है, ‘प्रणभंग’ से
लेकर ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ तक दिनकर
के काव्य में राष्ट्रीय चेतना किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है। हाँ, यह संदर्भ अलग है कि उनकी राष्ट्रीयता संबंधी अवधारणा में ससमय मूलभूत
परिवर्तन होते रहे।
दिनकर मिथकीय चरित्रों के सफल प्रयोगकर्ता हैं। सही अर्थों
में देखा जाय तो कवि ने अपनी रचनाओं में
जिन मिथकीय पात्रों को रचा है, वे अतीत और वर्तमान के संवादसेतु
हैं। दिनकर की यह पंक्तियाँ इस बात की साक्षी हैं- “जब भी अतीत में जाता हूँ / मुरदों को नहीं जिलाता हूँ/ पीछे हटकर फेकता बाण/ जिससे कंपित हो वर्तमान।” इन पंक्तियों से
ज़ाहिर है कि दिनकर की मिथकीय चेतना वर्तमान की ओर उन्मुख है। जनमानस में नवीन चेतना का आगाज़ ही उनकी रचनाओं
का ध्येय रहा है। दिनकर के कविकर्म की परिधि जितनी बड़ी है उनके साहित्यालोचन का भी
फ़लक उतना ही विस्तृत है। ‘मिट्टी की ओर’ (1949), अर्धनारीश्वर (1952),
‘काव्य की भूमिका’ (1958), ‘पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण’ (1958), ‘शुद्ध कविता की खोज’ (1966), आदि इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं। यह कहना बिल्कुल असंगत नहीं होगा कि रामधारी
सिंह दिनकर जितने बड़े कवि हैं उतने समर्थ गद्यकार भी हैं।
दिनकर के व्यक्तित्व की छाप
उनकी प्रत्येक पंक्ति पर है, पर कहीं-कहीं भावक को व्यक्तित्व की जगह
वकृत्व ही मिल पाता है। दिनकर की शैली में प्रवाह है, अनुभूति
की तीव्रता है, सच्ची
संवेदना है। इनकी अधिकांश रचनाओं में काव्य की शैली रचना के विषय और 'मूड' के
अनुरूप हैं। दिनकर की कविता का विशिष्ट गुण है कि जहाँ उसमें अभिव्यक्ति की
तीव्रता है, वहीं
उसके साथ ही चिंतन-मनन कीभी प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है। दिनकर जी जहां एक तरफ
गांधीवाद को आदर्श मानते रहे वहीं दूसरी ओर वे मार्क्सवाद के भी पक्षधर थे।
गांधीवाद में जहां उन्हें भारतीय चिंतन-धारा का सार दिखाई पड़ता था वहीं मार्क्सवाद, उनकी प्रगतिशील चेतना को पुष्ट करता था। ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान समारोह में सम्मानित
होते समय उन्होंने कहा था- “जिस तरह मैं जवानी भर इकबाल और रवींद्र के बीच झटके
खाता रहा, उसी तरह मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके
खाता रहा हूँ। इसीलिए उजाले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही मेरी कविता का रंग है। मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग
भारतवर्ष के व्यक्तित्व का भी होगा।”
रामधारी सिंह दिनकर के
काव्य की एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है- रूमानियत। दरअसल दिनकर के काव्य का यदि हम
बारीकी से अन्वेषण करें तो पाएंगे कि वे निरंतर साहित्य की तमाम प्रवृत्तियों को
लेकर द्वंद्वग्रस्त रहे हैं। द्वंद्व की यही स्थिति ही उनके काव्य में अनेक
अंतर्विरोधों का कारण बनी- ‘मिटा दूंगा ब्रम्हा का
लेख/ फिरा लूंगा खोया निज दाँव/ चलूँगा निज बल हो निःशंक/ नियति के सिर पर देकर
पाँव।’ दिनकर ने अपने काव्य में जिन मूल्यों का प्रतिपादन किया है उनमें तमाम अंतर्विरोध महसूस
किए जा सकते हैं। वस्तुतः दिनकर जी मानवतावाद के समर्थक थे। वे जड़ता और
निष्क्रियता को समाप्त कर आत्म गौरव की भावना को जाग्रत करने में आजीवन संलग्न
रहे। उनकी रचनाएँ तत्कालीन युग को समग्र रूप में प्रतिबिंबित करने में समर्थ हैं।
‘समर शेष है’ कविता में
वे अपने समय एवं समाज का चित्र खीचते हुए अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ करते हैं- ‘कुंकुम लेपूँ? किसे सुनाऊँ?
किसको कोमल गान?/ तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिंदुस्तान।… समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि हम ‘उर्वशी’ को छोड़ दें तो दिनकर की अधिकांश रचनाएँ वीर
रस से ओत-प्रोत हैं। भूषण के बाद दिनकर को वीर रस का श्रेष्ठ कवि होने का दर्जा
प्राप्त है। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक समानता एवं शोषण के
खिलाफ कविताएं लिखी। दिनकर एक युगद्रष्टा साहित्यकार थे। उनके व्यक्तित्व में कहीं कोई किसी भी प्रकार का
छल-छद्म अथवा दिखावा नहीं था। उन्होंने
राष्ट्र के हक में कलम चलाने में कोई कोताही नहीं की- ‘समर
शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं/ गांधी का पीआईआई
रुधिर, जवाहर पर फुँकार रहे हैं।’ दिनकर को उनकी उत्कृष्ट पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय ‘ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं
‘उर्वशी’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया। निश्चित रूप से दिनकर अपनी लेखनी एवं लेखन की वजह से सदा स्मरण किए जाते रहेंगे।
लेखकीय परिचय-
प्रदीप त्रिपाठी
स्वतंत्र लेखक/ शोध-अध्येता,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
मोबाइल- 8928110451,
ईमेल- tripathiexpress@gmail.com
No comments:
Post a Comment