Friday, 30 April 2021

गीत और ग़ज़ल परंपरा के आधार स्तंभ थे कुँवर बेचैन

इस नए माहौल में जो भी जिया बीमार है/ जिस किसी से भी नया परिचय किया बीमार है/… रोग कुछ ऐसे मिले हैं शहर की झीलों को अब/ इनका पानी जिस किसी ने भी पिया बीमार है/ एक भी उम्मीद की चिट्ठी इधर आती नहीं/ हो न हो अपने समय का डाकिया बीमार है – कुँवर बेचैन की यह आवाज अब कभी सुनने को नहीं मिलेगी। यह स्वीकार कर पाना अविश्वसनीय है कि कुँवर बेचैन साहब अब हमारे बीच नहीं हैं। हर दिल अज़ीज़ शायर, गीतकार एवं कवि के रूप में कुँवर बेचैन का सार्थक हस्तक्षेप अविस्मरणीय है। ताउम्र अपने समय से मुठभेड़ करते हुए कुँवर बेचैन व्यवस्था विडम्बना पर टिप्पणी करते रहे। आम आदमी की पीड़ा एवं जन सरोकार कुँवर बेचैन की रचनाओं का केंद्रीय बिन्दु रहा है। बेचैन की जिंदगी और शायरी दोनों का रंग बिल्कुल ही सादा है। एक प्रतिबद्ध कवि की तरह उन्होंने हमेशा समसामयिक मुद्दों पर कलम चलाने के खतरे उठाए। उनका जनवाद कहीं और से लिया या ओढ़ा हुआ नहीं वरन जमीनी हकीकत था। वास्तव में कुँवर बेचैन हमारे समय के बड़े कवि हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि उनकी कविताओं का कैनवास बड़ा है, इसलिए भी कि वे अत्यधिक संवेदनशील थे। कुँवर बेचैन ने अपनी रचनाओं में समाज के हर पक्षों को उठाया है। कुँवर बेचैन आजाद भारत के उन हस्ताक्षरों में से एक हैं जिन्होंने हिंदुस्तान में अमीर को अमीर और गरीब को गरीब होते देखा। आजादी के बाद की व्यवस्था का विरोध एवं मोहभंग ही उनकी कविता का मूल स्वर है। इस संदर्भ में बेचैन सीधे धूमिल की परंपरा से जुड़ते हैं। वे जनकवि इसलिए नहीं हैं कि उनकी कविताएं जनता की जुबान पर चढ़ चुकी हैं बल्कि इसलिए कि वे निरंतर हाशिये के समाज के बारे में सोचते और लिखते रहे। अपनी एक कविता में वह लिखते हैं- जो डर जाते हैं डर जाने से पहले/ वो मर जाते हैं मर जाने से पहले।

            कुँवर बेचैन को पढ़ते, सुनते और गुनते हुए हमारी पीढ़ी बड़ी हुई है। नदी पसीने की, दिन दिवंगत हुए, नदी तुम क्यों रुक गई, शामियाने काँच के, रस्सियाँ पानी की, दीवारों पर दस्तक आदि उनके महत्त्वपूर्ण ग़ज़ल एवं गीत संग्रह हैं। उनका वास्तविक नाम डॉ. कुँवर बहादुर सक्सेना है। साहित्यिक जगत में वे बतौर कवि, शायर व गीतकार कुँवर बेचैन नाम से जाने गए। गीतों और गजलों की दुनिया के बादशाह कुँवर बेचैन के जाने से साहित्य जगत पूरी तरह स्तब्ध है। बहुत ही दुख के साथ यह बात कहनी पड़ रही है, उनकी आवाज अब हम कभी नहीं सुन सकेंगे- कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े/ सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ। प्रिय कवि को आत्मीय श्रद्धांजलि। 

लेखक: प्रदीप त्रिपाठी
प्रकाशन : (जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ)

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