Monday, 11 July 2016

जिजीविषा के कथाकार अमरकांत


            
आलोचकों द्वारा अब तक नई कहानी में कहानी-त्रयी के रूप में जिन तीन नामों (मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव) की चर्चा करते हुए इसे सीमित दायरे में बांधकर देखा जाता रहा है, वह कहीं न कहीं एकांगी दृष्टिकोण का परिचायक है। इसी दौर में, प्रेमचंद की परंपरा से आने वाले ऐसे कई महत्त्वपूर्ण रचनाकार (अमरकांत, शेखर जोशी, मार्कण्डेय, भीष्म साहनी, रेणु आदि) हुए जिन्होंने न सिर्फ कहानी विधा को समृद्ध किया बल्कि उसे नई दिशा एवं गति प्रदान करने में भी अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है बावजूद इसके नई कहानी की चर्चा के क्रम में वे हमेशा हाशिये पर ही रहे । इनमें एक प्रमुख नाम अमरकांत का भी आता है। निश्चित रूप से अमरकांत की रचनाशीलता का दायरा बहुत ही व्यापक है। उन्होंने लगभग दस उपन्यास एवं सवा सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं। यहाँ मैं अमरकांत की कुछ चर्चित कहानियों के आलोक में उनकी जनपक्षधरता, प्रतिबद्धता एवं महत्त्व को  रेखांकित करने की कोशिश करूंगा।
            अमरकांत मुख्यतः स्वतंत्र भारत के जटिल यथार्थ और द्वन्द्वों से घिरे समाज के जीवन-व्यापार और उसमें निर्मित हो रहे किरदारों को अत्यंत सहजता से पेश करने वाले रचनाकार हैं। अमरकांत की रचनाशीलता की सबसे प्रमुख विशेषता है कि उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए वही भूमि चुनी जिसमें वे जी रहे थे। स्वाधीनता के बाद संयुक्त परिवारों का विघटन, आर्थिक बदहाली, देश-विभाजन, बेरोजगारी, संत्रास, कुंठा, भ्रष्टाचार एवं अवसरवादिता जैसी तमाम अराजक स्थितियों के गहराने से जनता के मन में असंतोष एवं मोहभंग जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होने लगी थी। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं के न मिलने से आजादी के बाद आम आदमी का मन एवं उनके सजोए हुए सपने टूटने लगे थे। ऐसी निराशा के बीच अमरकांत ने इसी यथार्थ को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखा।
            मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज का चित्रण, शोषण के शिकार पात्रों की चारित्रिक जटिलता, मनोवैज्ञानिकता, विसंगतिबोध (एब्सर्डिटी), स्त्री-शोषण आदि जैसे विषय अमरकांत की रचनाओं  के केंद्र में हैं। जिंदगी और जोंक अमरकांत की सर्वाधिक चर्चित एवं महत्त्वपूर्ण कहानी है। देखा जाय तो कहानी के शीर्षक से ही यहाँ बहुत सारी चीजें स्पष्ट हो जाती हैं। कहानी के मुख्य पात्र रजुआ के माध्यम से एक संघर्षरत आदमी के जीवन एवं उसकी जिजीविषा को रेखांकित करते हुए अमरकांत ने सामंती व्यवस्था की अमानवीयता एवं मूल्यहीनता पर गहरा प्रहार किया है। रजुआ समाज द्वारा हर प्रकार से शोषित है। चोरी का झूठा आरोप लगाकर लोग उसे पीटते हैं। मनमाना काम लेकर उसे गैर वाजिब मजदूरी देते हैं। रजुआ अपनी कमाई के जो भी दस-पाँच रूपए जमा किया रहता है अंततः वह भी उसे वापस नहीं मिलता है। कहानी में उद्धृत यह लोकोक्ति ही - नीच और नीबू को दबाने से ही रस निकलता है पूरे समाज की मानसिकता एवं अमानवीयता की कलई खोल देती है। रजुआ की पीड़ा, केवल जीवन जीने की पीड़ा नहीं है बल्कि आज की सामान्य जिंदगी के समाजीकरण की पीड़ा है।  
            अमरकांत कहानी की यथार्थवादी परंपरा के सिद्धहस्त रचनाकार हैं। इनकी कहानियों में जिंदगी की अचूक पकड़ है। यही कारण है कि इनकी कहानी के पात्रों का वास्तविक जीवन से गहरा मेल बैठता है। ‘हत्यारे’ अमरकांत की बहुचर्चित कहानियों में से एक है। यह मुख्य रूप से स्वाधीन भारत में नौजवानों की स्थिति पर लिखी गई अद्भुत कहानी है। इस कहानी का वैशिष्ट्य अन्य कहानियों के बरक्स पूर्णतया भिन्न है।  हत्यारे कहानी के पात्र मोहभंग से उत्पन्न विकृति एवं मूल्यांध मानसिकता के प्रतीक पात्र हैं। इस कहानी के केन्द्रीय पात्र दो युवक हैं जो संवेदनशून्य समाज के अद्भुत नमूने हैं। यह पात्र मुख्य रूप से वर्तमान युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जो न सिर्फ एक व्यक्ति की ह्त्यारे हैं बल्कि विवेक शून्य जीवन-मूल्यों के भी हत्यारे हैं। यह कहानी मूलतः वर्तमान समय में युवा पीढ़ी के मानसिक विघटन एवं कुंठित व्यक्तित्व को रेखांकित करती है।
            ‘डिप्टी कलक्टरी अमरकांत की बहुचर्चित कहानी है। काबिलेगौर है कि अमरकांत की कहानियों के निम्न मध्यवर्गीय पात्र जीवट, संघर्षशील व जिजीविषा से लैस हैं। तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद शकलदीप बाबू अपने कर्तव्यों से नहीं चूकते हैं बल्कि उससे जूझते हुए संघर्ष करते हैं। वह कर्ज लेकर अपने लड़के नारायण को डिप्टी कलक्टरी की परीक्षा में शामिल करवाते हैं। उन्हें ईश्वर और भाग्य को छोड़कर किसी पर विश्वास नहीं है। वे मंदिर जाते हैं। ईश्वर को प्रसाद चढ़ाकर मन्नत भी मानते हैं। बेटे को प्रसाद देते वक्त यह भी कहते हैं कि - “बेटा इसे श्रद्धा से खा लेना, भगवान शंकर का प्रसाद है।” गौरतलब है कि आर्थिक कठिनाइयों से जर्जर शकलदीप बाबू यहाँ भाग्यवादी हो उठते हैं। नारायण को कठिन परिश्रम करते देखकर वे प्रसन्न अवश्य होते हैं पर उसके सफल होने का भरोसा उन्हें बिल्कुल नहीं है। कहानी के अंत तक जाते-जाते शकलदीप बाबू के सारे सपनों पर अंततः पानी फिर ही जाता है। दरअसल स्वतन्त्रता संग्राम ने देश की पीड़ित जनता के मन में यह स्वप्न जगा दिया था कि स्वाधीनता के बाद हम सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से पूर्णतः स्वतंत्र होंगे, हमारी सारी विपन्नताएँ दूर होंगी, वे सारे के सारे सपने धरे के धरे रह गए इसी मोहभंग की एक सूक्ष्म तस्वीर अमरकांत ने अपनी इस कहानी में खीचने की कोशिश की है।  
            आजादी के बाद हिन्दी कहानी में नई कहानी का जो आंदोलन उभरा उसमें स्वातंत्र्योत्तर काल की मोहभंग की स्थिति तथा संत्रास मुखरित हुआ है। इसके आलोक में अमरकांत अपनी रचनाओं में हर प्रकार के छद्म, ढोंग, सामाजिक विसंगतियों और परिवेशगत अंतर्विरोधों की पड़ताल करते हुए एक बेहतर समाज रचना के लिए लेखक की सक्रिय भूमिका और साझेदारी की बात करते दिखाई देते हैं। इनकी रचनाओं की पृष्ठभूमि में सहज मानवीय यथार्थवादी संवेदना है जो बगैर किसी कलात्मकता के पाठकों को अभिभूत कर देती है।  नई आर्थिक परिस्थितियों से संघर्ष करता मध्यवर्गीय समाज उसकी यातनाओं एवं जीवन की भूख का जैसा हृदयस्पर्शी चित्रण अमरकांत ने किया है, वह हिन्दी कथा साहित्य में अप्रतिम है। अमरकांत ने अपनी रचनाओं में सीधे-सपाट वर्णन करने की उस शैली का प्रयोग किया है जिसे हम प्रेमचंद की परंपरा अथवा उसकी अगली कड़ी के रूप में देख सकते हैं। उन्होंने सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं एवं अंतर्विरोधों को जैसा देखा व महसूस किया उन्हें अपनी कहानी की घटनाओं, स्थितियों व पात्रों में मूर्त करके ठीक उसी प्रकार से वास्तविकता को पारिभाषित किया है। इस संदर्भ में यहाँ अमरकांत की चर्चित कहानी दोपहर का भोजन का उल्लेख करना बेहद समीचीन है। इस कहानी में जिस निर्ममता एवं बारीकी के साथ समूचे निम्न मध्यवर्गीय परिवार के त्रासद अभावों को अंकित किया गया है वह अपने समय सापेक्ष प्रासंगिक होने के नाते आज भी इस कहानी का ऐतिहासिक महत्व है। इस वर्ग के पात्रों में सहनशीलता तथा भविष्य के प्रति आशा देखने को मिलती है। कहानी में रामचंद्र अपनी माँ सिद्धेश्वरी से वर्तमान स्थिति के सुधरने की आशा व्यक्त करते हुए कहता है- “समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।” कहानी की स्त्री पात्र सिद्धेश्वरी आर्थिक विपन्नता की स्थिति में भी परिवार की हिम्मत बंधाती रहती है। उन्हें  मानसिक रूप से टूटने नहीं देती। एक प्रकार से देखें तो ‘दोपहर का भोजन’ कहानी मूलतः अमानवीय व्यवस्था के प्रति तीखा व्यंग्य है।         
अमरकान्त अपनी कहानियों में वस्तु विन्यास को इतने सहज ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि वह आम पाठक तक पूरी तरह संप्रेषित हो सके। जिस प्रकार से उनकी कहानियों की भाषा बेहद सहज और सरल है उसी प्रकार शिल्प-विधान भी अनगढ़ एवं सहज प्रतीत होता है। उनकी कहानियों के शिल्प की सबसे बड़ी खूबी उनकी अनुभूतिगत सच्चाई और सरलता है। गौरतलब है कि अमरकान्त ने कथानक या व्यंग्य की सहज कला की रोचकता को नई रोचकता के साथ प्रस्तुत किया। अमरकांत की ‘बस्ती’, ‘मूस, कुहासा, ‘नौकर’,‘लड़का-लड़की’ एवं पलाश के फूल जैसी तमाम ऐसी कहानियां हैं जो न सिर्फ स्वाधीन भारत की विसंगतियों एवं विडंबनाओं की तस्वीर पेश करती हैं बल्कि मौजूदा समाज-व्यवस्था पर गहरा प्रहार भी करती हैं।
जाहिर है, अमरकान्त की कहानियों का फ़लक अत्यंत विस्तृत है और वह लेखक के परिवेश से गहरे रूप से जुड़ी हुई है। अमरकांत उन रचनाकारों में से एक हैं जिनकी कहानियाँ न सिर्फ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं अपितु हमारे समय एवं समाज का प्रामाणिक दस्तावेज़ है।
  

                                               

लेखकीय परिचय-



       प्रदीप त्रिपाठी   
शोध-अध्येता एवं स्वतंत्र लेखक@ देश-दुनिया
मोबाइल- 08928110451

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