सिनेमा और सिनेमा के गीतों के विषय में आपकी क्या राय है ?
बारीक बात बाद में। मुझसे एक बार फ़िल्मीं जगत के अनुभव सुना रहे थे कमलेश्वर, तो मैंने पूछा कि अब आपने फ़िल्मों के लिए लिखना छोड़ा क्यूँ , तो कमलेश्वर बोले कि जब तक मैं उसमें अपने को सहज महसूस करता था तब तक तो रहना ठीक लगा लेकिन अब... उन्होंने कहा कि गीत से लेकर संवाद तक डायरेक्टर मुझसे कहते थे कि कोई ऐसी सिचुएशन क्रिएट कीजिये जिसमें कि हीरोइन को कमर लचकाने का मौका हो, तो उन्होंने कहा कि मैंने छोड़ दिया, ये मुझसे नहीं होगा । ये तो हो गयी मोटी बात, अब बारीक़ बात- मैं यह कहता हूँ कि फ़िल्मी गीत लिखने की प्रक्रिया में डायरेक्टर का हाथ अधिक रहता है । ऐसे कम गीतकार हैं, जैसे कैफ़ी आज़मी थे, साहिर लुधियानवी थे, शैलेन्द्र थे वगैरह-वगैरह जो कि तीन स्थितियों से गुजरने के बाद गीत लिखते थे- पहला- कहानी सुनते थे और तब तय करते थे कि हम इसमें रहेंगे या नहीं रहेंगे । अब मान लो की कहानी ही दो कौड़ी की हो तो उसमें कोई गीत या संवाद क्या लिखेगा ! दूसरा- सिचुएशन को देखते थे, कि फ़िल्म में दृश्य क्या है, उसके अनुसार अगर स्वीकार कर लिया तो गीत लिखते थे । तीसरी बात ये है कि गीतों के दो स्रोत हैं – एक देशभर की हर मातृभाषा में लोकगीत होते हैं जितने भी गंभीर लेखक और सीरियस गीतकार हैं वो उन लोकगीतों की मदद से अपने गीत रचते थे जो की शैलेन्द्र के यहाँ बहुत है । ध्यान देने की बात ये भी है कि शैलेन्द्र पहले इप्टा में थे, रेलवे में एम्प्लॉय भी थे । तो इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े होने के कारण उनका एक प्रगतिशील दृष्टिकोण था । ये उनकी कविताओं से साबित होता है और गीतों से भी साबित होता है । शैलेन्द्र दो स्रोतों से अपने गीतों की रचना की सामग्री जुटाते थे- एक लोकजीवन, लोकचेतना और लोकगीत । दूसरा सोच विचार की प्रक्रिया से, जीवन जगत के बारे में अपने अनुभव से । इससे उनके गीतों का स्वरुप बनता था । अब यह तो हर फ़िल्मी गीतकार की मजबूरी है और उसका गुण भी कि गीत ऐसा लिखे जो सहज हो । शैलेन्द्र तो कवितायें भी वैसी ही लिखते थे, इसलिए कवि शैलेन्द्र और गीतकार शैलेन्द्र में बुनियादी एकता है ।
कवि और गीतकार शैलेन्द्र को साहित्य में तो फिर भी कभी पहचान नहीं मिल पाई जबकि उन्होंने गीत भी वैसे ही लिखे जैसी कि वे कवितायें लिखते थे ।
शैलेन्द्र के कुछ गीत ऐसे भी हैं जो उनके पहले के गीत हैं वो फ़िल्मों के लिए नहीं लिखे थे उन्होंने, जैसे – ‘तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर’ ये गीत बहुत पहले का है, बाद में किसी फ़िल्म में फिट किया गया है ।
जब तक वे प्रलेस में थे, इप्टा से जुड़े हुए थे तब तक सहित्य में उन्हें जाना गया, जैसे ही उन्होंने सिनेमा के लिए गीत लिखना शुरू किया साहित्य जगत से वे अलग-थलग क्यों कर दिये गये ? उनके इन गीतों को साहित्यिक महत्त्व का क्यों नहीं माना गया ?
कवि के रूप में भी मेरी जानकारी में शैलन्द्र पर किसी आलोचक ने लेख तो छोड़ो उनका उल्लेख तक नहीं किया । ये अलग बात है कि जब वे इप्टा में थे तो उनके गीत सम्मेलनों में गाए जाते थे । फिर उनका एक संग्रह भी छपा ‘न्यौता और चुनौतियाँ’ नाम से, लेकिन फ़िल्मीं गीतों के साथ दिक्कत ये है कि हिंदुस्तान में साहित्य और सिनेमा के बीच गंभीर सम्बन्ध कभी विकसित ही नहीं हुआ उदाहरण के लिए मुझे दो भाषाओं की फ़िल्मों का थोड़ा ज्ञान है हिंदी के आलावा, बंगला और मलयालम का । बंगला में फिल्म वाले जो लोग थे, वे स्वयं साहित्यकार थे और साहित्य में उनकी चर्चा कई तरह से होती है, यही स्थिति थोड़ी-थोड़ी मलायलम फ़िल्मों में भी है लेकिन हिंदी में यह प्रवृति नहीं है । मूल बात ये है कि हिंदी में फ़िल्मों और साहित्य के बीच गंभीर संवाद और सम्बन्ध की स्थिति कभी बनी ही नहीं । तो उसका परिणाम यह हुआ कि जो फ़िल्मों के लिए गीत लिखते थे उनको साहित्य वाले महत्त्व नहीं देते थे, उनकी चर्चा भी नहीं करते थे और जो गीतकार थे फिर वे भी धीरे-धीरे साहित्य की दुनिया से कटने लगे । शैलेन्द्र भी इस प्रक्रिया का शिकार हुए क्योंकि यह एक व्यापक प्रक्रिया फिल्म और साहित्य के बीच सम्बन्ध के आभाव की है । उसके शिकार वे भी हुए, साहिर लुधियानवी भी हुए, मजरूह सुल्तानपुरी भी हुए और बहुत सारे लोग हुए ।
आप सिनेमा के गीत सुनते हैं ? ऐसे कुछ गीत जो आपको पसंद हों ?
गीत अलग से तो मैं नहीं सुनता लेकिन जो फ़िल्में देखी हैं उनमें जो गीत सुने हैं वह भी तो गीत सुनना ही हुआ ना । ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’ यह गीत है शैलेन्द्र का इस गीत को पढ़कर ही लगता है कि जैसे कबीर का गीत हो ‘चिठिया हो तो हर कोई बाँचे हाल ना बाँचे कोय’ ये लगभग उसी अंदाज़ का गीत है जो कबीर का है मीरा का है । ‘तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर’ अब यह मजदूर संगठन का गीत है, ज़िन्दगी के संघर्ष में उम्मीद जगाने वाला गीत है । कौन कवि किधर से शब्दावली, भाषा, प्रेरणा लेता है इससे भी गीतों का साहित्यिक महत्त्व बनता है । अच्छा, ऐसे भी गीत हैं जो फिल्म में अच्छे लगे लेकिन बाहर वो उतने अच्छे नहीं लगे । माने टेक्स्ट के रूप में । “प्यासा” फ़िल्म का एक गीत है - ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ । यह गीत जब फिल्माया गया तब तो बहुत प्रभावशाली है, लेकिन अलग से यह गीत लेकर पाठ के रूप में पढ़ें तो वो उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगेगा । इसलिए गीत की साहित्यिकता तय करते हुए यह ध्यान में रखना होगा कि संगीत के साथ होने पर उसकी साहित्यिकता ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या संगीत और दृश्य के साथ । कभी-कभी फ़िल्मी गीतों को महत्त्वपूर्ण बनाने में संगीतकारों का भी बहुत महत्त्व रहा जैसे खय्याम हैं, नौशाद हैं ।
आपको नहीं लगता की साहित्य में इन सिनेमा के गीतों पर भी चर्चा होनी चाहिए ?
बिलकुल होनी चाहिए । क्यों नहीं होनी चाहिए !
तो क्यों नहीं हुई या होती ?
अब क्यों नहीं होती ये तो वही जाने जो नहीं करते !
आपको नहीं लगता की आलोचकों को इस और ध्यान देना चाहिए ?
ओह हो! मैंने तो कहा न तुमसे कि शैलेन्द्र का तो लोग उल्लेख तक नहीं करते, मैंने तो लेख लिखा है उनपर । तो अब मैं क्या कह सकता हूँ !
भाषा के स्तर पर हिंदी को समृद्ध करने का काम, देशों-विदेशीं तक पहुचांने का काम हिंदी सिनेमा के गीतों ने किया , आपकी क्या राय है ?
ये कोई साहित्यिक महत्त्व नहीं, यह भाषा के स्तर पर है इससे साहित्य का कोई प्रतिमान या आधार तो नहीं बनेगा ! इंग्लिश स्पीकिंग एरिया में भी हिंदी को पहुँचाने का काम फ़िल्मीं गीतों ने किया है तो ये भाषा के स्तर पर उनका योगदान है, पर साहित्यिक मामला यह नहीं है ।
जिस प्रकार कविताओं की आलोचनाएँ या चर्चाएँ होती हैं, उसी प्रकार गीतों पर भी चर्चा हो तो आपको नहीं लगता कि उनका स्तर और अधिक सुधर सकता है ?
किसी भी चर्चा से गीतों का स्तर सुधर नहीं सकता, क्योंकि वो सारा व्यवसाय का मामला है । गीतकार निर्देशक के जब इस इशारे पर गीत लिखेगा की एक्ट्रेस नाचे- कूदे ,कमर लचकाए तो गीतकार भी ऐसे ही गीत लिखेगा ना । क्योंकि उसको पैसा मिलना है । फ़िल्म का सारा माध्यम एक भारी व्यवसाय है । व्यावसायिकता ने घुसकर हर चीज़ को नष्ट किया है । सिनेमा के गीतों पर ऐसा नहीं है कि तुम पहली हो जो काम कर रही हो, इससे पहले भी विभिन्न विश्वविद्यालयों में फ़िल्मीं गीतों पर काम हुआ है । थोडा काम तो हुआ है लेकिन चूँकि साहित्य में इसकी चर्चा नहीं होती, पत्र-पत्रिकाओं में नहीं होती, आलोचनाओं में नहीं होती तो तुम थीसिस लिखोगी और उसके दो ही हश्र हो सकते हैं- या तो पड़ी रहे लाइब्रेरी में और तुम्हारे पास हो, नहीं तो छप जाये और दो चार मित्र लोग पढ़ लें । इसलिए खाली रिसर्च से वो संवाद नहीं बन पाता, नहीं तो रिसर्च तो बहुत लोगों ने किया है ।
पुराने गीतों और नए गीतों में कोई बुनियादी अंतर जो आपको लगता हो ?
आज के निन्यानवे प्रतिशत गीत रद्दी हैं । पुराने गीत-संगीत, फ़िल्म तक सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिखे जाते थे आज तो कुछ भी नहीं है । हाल के वर्षों में अधिकांश फ़िल्में देखना मैंने बंद कर दिया है । पुरानी फ़िल्में हर दृष्टि से बेहतर हैं गीतों की दृष्टि से, लिखने वालों की दृष्टि से, संगीत की दृष्टि से । आज तो संगीत के नाम पर म्यूजिक कम और शोर ज्यादा है ।
साभार:
(http://jomanmeinaya.blogspot.com/2016/06/blog-post_21.html?m=1)
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