Wednesday, 3 August 2016

‘कल्‍पना’ पत्रिका के संदर्भ में नामवर सिंह से बातचीत


                                                                  

प्रश्‍न- भाषा के विकास में 'कल्‍पना' पत्रिका की क्‍या भूमिका रही है?
उत्तर -'कल्‍पना' के प्रधान संपादक आर्येंद्र शर्मा थे। ये संस्‍कृत के विद्वान एवं इनकी हिंदी भाषा पर अच्‍छी पकड़ थी। हिंदी को राजभाषा बनाने के क्रम में या उसके बाद हिंदी भाषा के विकास की तरफ लोगों का काफी ध्‍यान जाने लगा था। 'कल्‍पना' में उसी समय 'यह बेचारी हिंदी' नाम से एक स्‍तंभ शुरू हुआ जिसकी उस समय जरूरत थी। इस दिशा में वह स्‍तंभ काफी महत्त्वपूर्ण रहा। उन्‍होंने उस समय के रचनाकारों द्वारा जो शब्‍द-प्रयोग किए जाते थे उसे पूर्णत: व्‍यवस्थित करने का प्रयास किया। मुझे स्‍मरण है, 'सरस्‍वती' में एक 'अ‍नस्थि‍रता' का विवाद चला था, और अंतत: द्विवेदी जी को इसमें हार माननी पड़ी थी। बालमुकुंद गुप्‍त जी उस समय सही थे कि स्थिर का अनस्थिर नहीं होता है। 'अन' का प्रयोग वहाँ होता है जब शब्‍द स्‍वर से शुरू हो। उस समय भाषा के विकास में सरस्‍वती पत्रिका के माध्यम से महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो भूमिका निभाई उसे आर्येंद्र शर्मा ने आगे बढ़ाया जिसकी तरफ अन्‍य पत्रिकाओं का ध्‍यान नहीं जा रहा था। साहित्यिकता के स्तर पर यदि देखा जाय तो उस दौर में 'कल्‍पना' से बेहतर अन्‍य कोई पत्रिका नहीं थी। कुल मिलाकर देखें तो भाषा एवं साहित्य को लेकर जो काम 'सरस्‍वती' पत्रिका का रहा, उसी को 'कल्‍पना' ने आगे बढ़ाया।
प्रश्‍न- साहित्य की लगभग सभी विधाओं को 'कल्‍पना' ने जगह दी है। विधागत स्‍तर पर देखें तो 'कल्‍पना' ने किस विधा को ज्‍यादा महत्त्व दिया?
उत्तर-'कल्‍पना' सभी विधाओं की बड़ी संतुलित पत्रिका थी। उसका हर विधाओं पर समान फोकस था। उसने हर विधा को महत्त्व दिया। ऐसा नहीं है कि वह केवल आलोचना प्रधान पत्रिका थी। इसमें कहानी, कविता एकांकी, उपन्‍यास, निबंध, संस्‍मरण सभी विधाओं को समान जगह मिली है, यही उस पत्रिका की खासियत भी थी। यहाँ तक कि इसने दूसरी भाषा की कृतियों को भी अनुवाद के रूप में सामने लाने का पूरा प्रयास किया है।
प्रश्‍न- 'कल्‍पना' में लगभग सभी विधाएं एक साथ छप रही थी। आज इस तरह की पत्रिकाओं का अभाव क्‍यों है?
उत्तर- देखिए, इसके संपादक बद्रीविशाल पित्ती लोहिया जी के शिष्‍य थे। लोहिया जी हिंदी प्रेमी थे, संपन्‍न आदमी थे। एक ऐसा आदमी जो पैसे वाला हो, भाषा साहित्य में रुचि रखता हो तो निश्चित रूप से पत्रिका को बेहतर रूप दे सकता था और दिया भी। यह बिजनेस के लिए नहीं निकाल रहे थे। इनका उद्देश्‍य भाषा और साहित्य का विकास करना था, उसी दिशा में उन्‍होंने काम किया। इस तरह का काम आज की पत्रिकाएं नहीं कर पा रही हैं, उनमें कुछ न कुछ कमियाँ जरूर हैं, जिनकी तरफ लोगों का ध्यान  नहीं जा रहा है। इस पर आज सोचने की जरूरत है।
प्रश्‍न- 'कल्‍पना' ने किन-किन साहित्यिक आंदोलनों को (जैसे- नई कविता, नई   कहानी   आदि) विकसित करने में अपनी भूमिका निभाई?
उत्तर-यह पत्रिका किसी आंदोलन से नहीं जुड़ी हुई थी, न ही नई कहानी, न ही नई  कविता। पित्ती जी समाजवादी पार्टी से संबद्ध थे साथ ही लोहिया जी के हिंदी प्रेम से भी प्रभावित थे। वह किसी साहित्यिक मण्‍डली, दल या आंदोलन के साथ नहीं थे, यह सच है। यह उस दौर की महत्त्वपूर्ण पत्रिका थी जिसका अखिल भारतीय रूप था।
प्रश्‍न- स्‍थायी स्‍तंभों के माध्‍यम से इस पत्रिका ने अपने समय के जिन सवालों को उठाया, वे कितने महत्‍वपूर्ण थे?
उत्तर- साहित्यिक स्‍तंभों में 'साहित्यधारा' वाला कॉलम बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। उसमें समकालीन साहित्य की टिप्‍पणियाँ होती थी। शायद इस कॉलम को मारकण्‍डेय ही लिखते थे। स्‍तंभों को लेकर यदि देखा जाय तो पूरे साहित्यिक पत्रिकाओं में जो स्‍थान इस पत्रिका का रहा है, इतनी यादगार पत्रिका अभी तक नहीं निकली।
प्रश्‍न- अगर वैचारिकी की बात करें तो इसमें कई विचारधाराओं के लोग एक साथ छप रहे थे, अगर इस दृष्टि से आप इस पत्रिका को देखें तो क्‍या कहेंगे?
उत्तर-हाँ, एक प्रकार से देखा जाय तो यह पूर्णत: संपादक के ऊपर निर्भर होता है कि वह अपनी पत्रिका को किसी एक विचारधारा या गुट तक सीमित न करके उसे लोकतांत्रिक और उदार दृष्टि से देखता है। यह चीजें  'कल्‍पना' में थी। यही कारण है कि विभिन्‍न विचारों एवं प्रवृत्तियों के लोग इसमें सहयोग करते थे। यह उसकी सफलता थी। साहित्यकारों में जो मतभेद थे, वे अपनी-अपनी  जीवन-दृष्टि एवं शैली के थे इसलिए लोगों को इसमें आपत्ति नहीं थी। यह एक मंच जैसी थी। लोग इसमें सहयोग करते थे। लोगों में मतभेद जरूर थे लेकिन कटुता नहीं थी। उस समय किसी की ईमानदारी पर शक करना या किसी भी तरह की गुटबाजी नहीं थी।
प्रश्‍न- अनुदित कृतियों को 'कल्‍पना' ने जिस तरह से महत्त्व दिया है, उस तरह आज की पत्रिकाएँ  अनुदित कृतियों के प्रकाशन से विमुख क्‍यों होती जा रही हैं?
उत्तर- इ‍सलिए कि यहाँ कहानियाँ और अन्‍य विधाओं में लिखने वाले बहुत हैं और जो विदेशी भाषा की रचनाएं हैं, उनको लोग पुस्‍तकाकार छाप रहे हैं। ऐसा नहीं कि विदेशी साहित्य का हिंदी में अनुवाद नहीं हो रहा है, हो रहा है। कविताओं, कहानियों, उपन्‍यासों आदि का खूब अनुवाद हो रहा है। वह ज्‍यादातर पुस्‍तकाकार छप रही हैं, कुछ एक पत्रिकाओं में भी छप जाती हैं।
प्रश्‍न- जैसे उस दौर में बहुत सी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ निकल रही थी। (सारिका, धर्मयुग, आलोचना जिसके आप प्रधान संपादक भी हैं) जिस तरह से 'कल्‍पना' अनेक विधाओं का समायोजन करके चल रही थी, उस तरह की चीजें आज की पत्रिकाओं में क्‍यों नहीं आ पा रही हैं?
उत्तर- हाँ, कल्‍पना एक संपूर्ण पत्रिका थी लेकिन अब अलग-अलग विधाओं के लिए अलग-अलग पत्रिकाएँ हो गई हैं। जैसे 'हंस' है- मुख्‍यत: कथा की पत्रिका। 'आलोचना' मुख्‍यत: आलोचना के लिए हो गई है...आदि। इस प्रकार देखे तो जब अलग-अलग विधाओं के लिए अलग-अलग पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी तो पहले जैसी ('कल्‍पना' जैसी) स्थितियाँ खतम हो गई। आज विभिन्‍न राजधानियाँ भी अपने-अपने प्रदेश की स्‍वतंत्र पत्रिकाएँ निकाल रही हैं,  और अच्‍छी पत्रिकाएँ निकल रही हैं।
प्रश्‍न- इसके अलावा  'कल्‍पना' अन्‍य पत्रिकाओं से किस प्रकार अलग हैं?
उत्तर- 'कल्‍पना' एक मुकम्‍मल पत्रिका थी जिसमें कविता, कहानी उपन्‍यास आलोचना प्रमुखता से एक साथ छपते थे। यहाँ तक कि इसके संपादकीय भी कुछ महत्‍वपूर्ण होते थे। साहित्य की विभिन्‍न मासिक गतिविधियों के अतिरिक्‍त इसमें अनुदित कृतियों एवं स्‍तंभों का भी प्रमुख स्‍थान था। 'सरस्‍वती' की तरह यह भी एक मुकम्‍मल पत्रिका थी। यानी कहना चाहिए कि कुछ पत्रिकाएं जो मुकम्‍मल होती हैं, जैसे 'सरस्‍वती' के बाद प्रेमचंद की पत्रिका 'हंस' थी। बहुत अच्‍छी पत्रिका थी, उसी तरह से 'कल्‍पना' थी। ऐसी कई और पत्रिकाएँ हैं जिनका स्‍मरण करना तो संभव नहीं है लेकिन स्‍वाधीनता के बाद हर प्रदेशों से महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ निकली। जैसे-उदयपुर से -'मधुमती' भारत भवन से 'पूर्वग्रह आदि। इस प्रकार से हम देखें तो 'कल्‍पना' पत्रिका भी एक अलग लीक पर चलने वाली पत्रिका थी जिसका हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में महत्त्वपूर्ण स्‍थान है।
प्रश्‍न- इतनी महत्त्वपूर्ण पत्रिका होने के बावजूद ऐसे कौन से कारण थे जिससे कल्पना 1975-76 तक जाते-जाते निष्क्रिय होने लगती है और अंतत: बंद हो गई?
उत्तर-इसके संपादक को लगने लगा कि 'कल्‍पना' अब अपना काम कर चुकी है। उन्‍हें लगा कि अब यह पत्रिका अपना वही स्‍तर कायम नहीं रख सकेगी एवं जिस स्‍तर की पत्रिका हमने निकाल दी है अब उस स्‍तर की हम रक्षा नहीं कर सकते है, तो इसको बंद करना ही बेहतर समझा। मसलन कहानी, कविता आलोचना की अलग-अलग पत्रिकाएँ छपने लगी यहाँ तक कि कई शोध पत्रिकाएँ भी निकलने लगी तो 'कल्‍पना' के (संपादक) ने  देखा कि अब पत्रिकाएँ तो अपना काम कर रही हैं। इस होड़ में 'कल्‍पना' का पहले जैसा तेवर नहीं रहेगा। इसलिए उन्होंने  ऐसे समय में इसे को बंद करना ही समझदारी समझी और कोई बात नहीं थी।


लेखकीय परिचय- 



प्रदीप त्रिपाठी, शोध-अध्येता
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
        मोब. 08928110451

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