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के प्रगतिशील कवियों में अरविंद चतुर्वेद जी का विशिष्ट स्थान है। चतुर्वेद जी की
यह खूबी रही है कि उन्होंने हमेशा युगीन यथार्थ एवं समसामयिक चेतना को अपने काव्य
का विषय बनाया। इनकी रचनाओं में जन-जीवन की आशा-आकांक्षा है, वह सामाजिक चेतना से युक्त है तथा इनमें जनवादी स्वर सर्वोपरि
है। अरविंद चतुर्वेद अभावों से पीड़ित एवं शोषण से त्रस्त जनता के दुख-दर्द को व्यक्त
करने वाले जमीन से जुड़े कवि हैं। इनकी कविताएं (दोहे)लोक से गहरे रूप से संपृक्त हैं। इनकी
लोक-दृष्टि अत्यंत व्यापक है। सही अर्थों में कवि ने मजदूर, किसान, व्यापारी, नेता, जमींदार सब पर
दृष्टिपात करते हुए उनका यथार्थ चित्रण किया है। इनकी कविताओं में तटस्थता एवं तुकबंदी
का गहरा ताल-मेल है। वास्तव में बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात को कहने वाले कवि के
रूप में अरविंद चतुर्वेद सर्वाधिक प्रिय हैं। तो पेश है अरविंद चतुर्वेद जी के चंद दोहे-
अगर जानना चाहते आजादी का सार,
अपने मन से पूछ लो, किसकी है सरकार।
साहेब तेरी साहबी जैसे पेड़ बबूल,
हमको छाया क्या मिले, गड़े जिया में शूल।
अक्षर-अक्षर में चमक, चढ़ा हुआ हो आब,
जीवन को पहचानिए, चेहरे खुली किताब।
तू मेरा क्या देखता, मै देखूंगा तोय,
कीचड़ में है तू सना, तुमको दूंगा धोय।
ऐसी उठापटक है, ऐसा कौवा-कांव,
नौका में जल भर गया, पानी में है नाव।
एक लहर छू कर गई, अमर कर गई प्यास,
ऐसे भी तो देखिए, क्यों चट्टान उदास।
आजादी क्या चीज है, कोई उसे बताय,
जो जंगल से बेदखल, जंगल को ललचाय।
औरत अगर गरीब है, है बदचलन जरूर,
मुखिया इज्जतदार है, कह गई पुलिस हुजूर।
दिन भर जनता-जाप कर, होटल आधी रात,
चार समर्थक साथ में, यह अंदर की बात।
इस सरहद पर शहर है, उस सरहद पर गांव,
हुआ अपाहिज देश यह खड़े-खड़े इक पांव।
बड़ा व्यस्त वह आदमी, रोजी-रोटी, आह,
डूब न जाए एक दिन, सपनों की क्या थाह।
दोस्त मिले तो चोट का पहले करो हिसाब,
तब फिर अपने दर्द की लिक्खो एक किताब।
मिट्टी, पानी, या हवा, या कि धूप, आकाश,
कभी किसी ने ना कहा, मै हूं सबसे खास।
छप्पर की छाया तले, कटते बारह मास,
यह छाया ही जानती मौसम का इतिहास।
कपड़े से लकदक हुए, बने छबीले छैल,
लेकिन सब पहचानते, उनके मन का मैल।
ऐसे भी कुछ लोग हैं, वैसे भी कुछ लोग,
इक बपुरा मर-मर जिए, दूजा करता योग।
गुरु हुए ज्ञानी बड़े, भरा हुआ है पेट,
सूत्र और सिद्धांत के बेचें सौ-सौ रेट।
जली हुई बीड़ी बुझी, खाली-खाली जेब,
अच्छा खासा आदमी, सौ-सौ खाय फरेब।
तू भी ना तेरी तरह, ना मै अपने जैसा,
हम दोनों को नचा रहा है, देखो कैसे पैसा।
बस्ती-बस्ती धुआं है, जंगल-जंगल आग,
दिल्ली में दरबार है, हरा-भरा है बाग़।
बाप अंगूठा छाप था, मरा कलम की मार,
बेटा पढ़-लिख कर हुआ, धूर्त और मक्कार।
उनकी शोहरत यों हुई जैसे गंध- कपूर,
आँखों को कुछ ना दिखे, दिल्ली में मशहूर।
जहां-जहां है रोशनी, वहां-वहां अपराध,
एक अंधेरा आपके दिल में है आबाद।
धुआं उठा है आज तो कल जागेगी आग,
कब तक सोया रहेगा यों जीवन का राग।
घर के हुए न घाट के, उमड़े धुएं-सी याद,
क्या आरा क्या आगरा, क्या औरंगाबाद।
नदी किनारे संत जी, भवसागर तैराक,
बड़ी विधर्मी बाढ़ थी, बहा ले गई साथ।
पानी पर पानी चले, चले बयार-बयार,
रहे तरंगित जिन्दगी, बनी रहे रफ़्तार।
चलते चलते चल गया, खोटा सिक्का यार,
जहां दर्ज थी रहजनी, वहां लिख गया प्यार।
लेखकीय परिचय-
अरविंद चतुर्वेद
जन्म: 06 मार्च 1958, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश
प्रमुख कृतियाँ- कई रोज़ से
(1980), सूर्योदय हम चाहते हैं(1982),चेहरे खुली किताब(1994), सुंदर चीजें शहर के बाहर हैं (2003)
संप्रति- डेली न्यूज समाचार पत्र का सम्पादन-कार्य कर
रहे हैं
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