Tuesday, 13 January 2015

'कविता में अचानक चुप हो जाना' : प्रदीप त्रिपाठी

महापुरुषों की फसलें अब सूख गई हैं 

संताप-संलिप्त-जिजीविषाओं के विस्मृत कंठ 
खूँटे से बंधे विचारों के साथ अट्टहास करते हुए
आम आदमियों की जुगाली और जुगलबंदियों के खंडहर-बीच
अपने-अपने वजूदों के द्वंद्व में
ध्वस्त हो रहे हैं वे और हम
फिर भी
यहाँ हस्तक्षेप जैसा कुछ भी नहीं है।
कैक्टस उगाए जाने के फ़िराक में
आदमी अपनी आदमियत को भूलने लगा है 

नेपथ्य में नए नए स्वांग रचते हुए
वाक्पटुता एवं धैर्य खो देने के बीच ही
पूरी तरह घबराया हुआ आदमी
अचानक धूमिल की कविता को पढ़ते हुए हँस पड़ता है
पर
उसकी हँसी का रफ़्ता-रफ़्ता चुप्पी में तब्दील होना
मुझे कविता लिखने से अचानक रोक देता है
यह बताते हुए कि
'जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो'
कविता में अब लिखने जैसा कुछ भी नहीं था
क्योंकि
वह भी जानते हैं...
'मौन भी अभिव्यंजना है' ______@ प्रदीप त्रिपाठी


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