जब दुनिया के सारे देश २१वीं सदी के १५वें वर्ष की दहलीज़ पर खड़े हैं, यह सोचना कोई जुर्म नहीं की हमने क्या खोया और क्या पाया । अमूमन देश के लोगों को सोचना भी चाहिए । भारत के कर्णधारों को भी सोचना चाहिए की, उन्होने अब तक क्या किया, अपने लिए या अपने देश के लिए ! यह बड़ा कठिन दौर है की जहां आधुनिकता ठीक से समझी ही न गई हो या समझने की कोई जरूरत ही न महसूस की गई हो, वहाँ भी उत्तरधुनिकता फूट पड़ी हो । हमारे यहाँ उच्चता के वितान रचने के लिए, ऊंची इमारत की कल्पना की जाती है, लेकिन सारी ऊर्जा नीव बनाने में ही खर्च कर दी जाती है । तो यह देश नीव भरे चबूतरों की बाजार बनता गया, और यह आज भी उसी सिद्दत से जारी है । अब आप ही बताइये वह भी कोई देश है जहां की सारी उच्चता, विशिष्टता, यहाँ तक की व्यवस्था भी कल्पना मात्र हो । कल्पनाओं का अतिरेक जब बाढ़ बन कर पूरे देश मे उमड़ रहा हो, और एक भी इच्छा पूरी होने का सवाल न हो, तो भावनाओं का कुंठित होना कोई बड़ी बात नहीं ।ऐसे भौतिक जीवन से ऊब कर लोगों की वृत्ति का आध्यत्मिक हो जाना, और सदियाँ बीत जाने के बाद भी आध्यात्मिक ही बने रहना कई सवाल मन मे खड़े करता है । हमारा भारतीय समाज धार्मिक कुहरे से घिरा हुआ समाज है जहां यथार्थ का सूरज देखना गुनाह है । यह कुहरा इतना भयावह है की भय शरीर के पोर-पोर में भरा हुआ है । अब उत्तरआधुनिकता के दौर मे एक विचित्र परिवर्तन हुआ है कि भय दिखने वाले कारक भी अपने मे खूब डरे हुए हैं और भय रोगी भी कभी कभी सोचने लगे हैं कि अब वह नशा नहीं रहा जो पहले होता था । तो ऐसे ही डरे हुए हमारे समय मे एक फिल्म आती है ‘पी के’ !
राजकुमार हिरानी के निर्देशन में आई यह फिल्म अपने समय की विसंगतियों को पहचानने में एकदम सफल फिल्म है । आमिर अपनी कलात्मक ऊंचाई को बनाए रखने वाला कलाकार है, इस फिल्म ने एक बार फिर साबित किया है । एक कलाकार के किरदार मे जो संवेदनाएं होनी चाहिए यहाँ दिखाई पड़ती है । मुख्य किरदार पीके एक एलियन है किसी दूसरे ग्रह का, ऐसा इस फिल्म मे दिखाया गया है । उसका रिमोट कंट्रोल, छीनकर चोरी कर लिया जाता है , और वह एक अच्छे मार्केट वाले धर्मगुरू के पास बेच दिया जाता है , तपस्वीजी उसे शंकरजी के डमरू का टूटा हुआ मनका बताता है । चमत्कार से भक्तों को आतंकित कर तपस्वीजी धर्म का ढिढोरा पीटता है । मुख्य पात्र पीके उसे पाने की कोशिश करता है , और अपनी सीधी सरल सच्चाई से उसे पाता भी है । यही इस फिल्म की कहानी है ।
यह एक पप्रतीकात्मक ढांचा है पूरी फिल्म का जो जादुई यथार्थ का सहारा लिए हुये है । दरअसल पीके कोई दूसरे ग्रह का प्राणी नहीं, वह प्रतीक है हमारे मनुष्य होने का, जहां कोई छल नहीं, दंभ नहीं, ईर्ष्या नहीं । वह किसी धर्म, जाति, वर्ग का एजेंट नहीं, वह शिर्फ मनुष्य है । क्या इतना काफी नहीं जिंदा रहने के लिए इस दुनिया मे । वह धर्म, जाति, वर्ग की दलदल वाली दुनिया में गलती से आ जाता है । उसका रिमोट जो खो गया है कुछ और नहीं मानव की खोई हुई अस्मिता है । वह इसे पाने के लिए सतत संघर्षशील है । लेकिन यहाँ धर्म, जाति, वर्ग के दलदल मे फांसी मनुष्यता अपनी अस्मिता ही भूल गई है । यह फिल्म हमारी समेदनाओं को झकझोरने वाली सच्चाई की ओर इशारा करती है । हमने मनुष्यता के पथ पर कितनी सफल दूरी तय की है, हमे सोंचने पर मजबूर करती है यह फिल्म । किसी बड़े चिंतक का कथन है कि ‘हमने कितनी दूरी तय की है यह माने नहीं रखता, किस ओर हमारे कदम बढ़े है यह महत्वपूर्ण है’।
इस फिल्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है भाषा । भाषा के माध्यम से इसमे जो जीवटता आई है उसका कोई जवाब नहीं । मनुष्यता की स्वभविकता को जानने का सबसे सफल तरीका है भाषा । फिल्म का मुख्य पात्र पीके परिनिष्ठित महानगरीय हिन्दी नहीं बोलता , वह पहले राजस्थानी हिन्दी बोलता है बाद मे भोजपुरी हिन्दी । यह उसकी स्वाभाविकता का सरल गांभीर्य है । ये भाषाएँ आदि भाषाएँ हैं बनावटी ‘बोली’ नहीं । फिल्म का मुख्य पात्र मनुष्यता की स्वाभाविकता का प्रतीक है, और यह काम स्वाभाविक भाषाओं में ही संभव है । यह ध्यान देने का विषय है कि हिन्दी सिनेमा इस दौर की उत्कृष्ट फिल्मों मे स्वाभाविकता लाने के लिए परनिष्ठित हिन्दी का सहारा छोड़ भोजपुरी, अवधी, बुन्देली आदि लोक भाषाओं की ओर उन्मुख हुआ है ।
लेखकीय परिचय-
राजकुमार हिरानी के निर्देशन में आई यह फिल्म अपने समय की विसंगतियों को पहचानने में एकदम सफल फिल्म है । आमिर अपनी कलात्मक ऊंचाई को बनाए रखने वाला कलाकार है, इस फिल्म ने एक बार फिर साबित किया है । एक कलाकार के किरदार मे जो संवेदनाएं होनी चाहिए यहाँ दिखाई पड़ती है । मुख्य किरदार पीके एक एलियन है किसी दूसरे ग्रह का, ऐसा इस फिल्म मे दिखाया गया है । उसका रिमोट कंट्रोल, छीनकर चोरी कर लिया जाता है , और वह एक अच्छे मार्केट वाले धर्मगुरू के पास बेच दिया जाता है , तपस्वीजी उसे शंकरजी के डमरू का टूटा हुआ मनका बताता है । चमत्कार से भक्तों को आतंकित कर तपस्वीजी धर्म का ढिढोरा पीटता है । मुख्य पात्र पीके उसे पाने की कोशिश करता है , और अपनी सीधी सरल सच्चाई से उसे पाता भी है । यही इस फिल्म की कहानी है ।
यह एक पप्रतीकात्मक ढांचा है पूरी फिल्म का जो जादुई यथार्थ का सहारा लिए हुये है । दरअसल पीके कोई दूसरे ग्रह का प्राणी नहीं, वह प्रतीक है हमारे मनुष्य होने का, जहां कोई छल नहीं, दंभ नहीं, ईर्ष्या नहीं । वह किसी धर्म, जाति, वर्ग का एजेंट नहीं, वह शिर्फ मनुष्य है । क्या इतना काफी नहीं जिंदा रहने के लिए इस दुनिया मे । वह धर्म, जाति, वर्ग की दलदल वाली दुनिया में गलती से आ जाता है । उसका रिमोट जो खो गया है कुछ और नहीं मानव की खोई हुई अस्मिता है । वह इसे पाने के लिए सतत संघर्षशील है । लेकिन यहाँ धर्म, जाति, वर्ग के दलदल मे फांसी मनुष्यता अपनी अस्मिता ही भूल गई है । यह फिल्म हमारी समेदनाओं को झकझोरने वाली सच्चाई की ओर इशारा करती है । हमने मनुष्यता के पथ पर कितनी सफल दूरी तय की है, हमे सोंचने पर मजबूर करती है यह फिल्म । किसी बड़े चिंतक का कथन है कि ‘हमने कितनी दूरी तय की है यह माने नहीं रखता, किस ओर हमारे कदम बढ़े है यह महत्वपूर्ण है’।
इस फिल्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है भाषा । भाषा के माध्यम से इसमे जो जीवटता आई है उसका कोई जवाब नहीं । मनुष्यता की स्वभविकता को जानने का सबसे सफल तरीका है भाषा । फिल्म का मुख्य पात्र पीके परिनिष्ठित महानगरीय हिन्दी नहीं बोलता , वह पहले राजस्थानी हिन्दी बोलता है बाद मे भोजपुरी हिन्दी । यह उसकी स्वाभाविकता का सरल गांभीर्य है । ये भाषाएँ आदि भाषाएँ हैं बनावटी ‘बोली’ नहीं । फिल्म का मुख्य पात्र मनुष्यता की स्वाभाविकता का प्रतीक है, और यह काम स्वाभाविक भाषाओं में ही संभव है । यह ध्यान देने का विषय है कि हिन्दी सिनेमा इस दौर की उत्कृष्ट फिल्मों मे स्वाभाविकता लाने के लिए परनिष्ठित हिन्दी का सहारा छोड़ भोजपुरी, अवधी, बुन्देली आदि लोक भाषाओं की ओर उन्मुख हुआ है ।
लेखकीय परिचय-
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
(युवा फिल्म समीक्षक एवं चर्चित कवि)
‘बया’, ‘वागर्थ’, ‘संवेद’, ‘जनपथ’ और ‘परिचय’ आदि पत्रिकाओं में शोध-आलेख एवं कवितायें प्रकाशित।
संप्रति- शोधरत(पीएच.डी.), महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा ,महाराष्ट्र
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