राजू अक्सर घर के सामानों
की लगभग सारी ख़रीदारी मार्केट के किसी एक ही दुकान से किया करता था। नाम था उनका मुरारी
बाबू। यह मार्केट के बड़े धन्नासेठों में से एक थे। शायद इसी कारण लोग इन्हें सेठ जी
भी कहा करते थे। एक दिन की बात है। दैनंदिन की भांति राजू आज भी मार्केट करने निकल
गए। मुरारी बाबू को ख़रीदारी के सामानों की लिस्ट पकड़ाते हुए बोले - अरे, सेठजी जरा ये सामान पैक कर देना, और हाँ, ध्यान रहे आज थोड़ा जल्दी में भी हूँ। लिस्ट के मुताबिक मुरारी बाबू ने राजू
का ख़याल रखते हुए सामान पैक कर दिए। थोड़ा जंभाई लेते हुए, हां
सेठ जी कितने पैसे हुए? राजू ने पूछा। ज्यादा नहीं, बस मात्र तीन सौ पैतालीस रूपए। जेब से तीन सौ पचास रूपए निकालकर पकड़ाते हुए
राजू ने कहा ये रख लो सेठजी। मुरारी बाबू 5 रुपए वापस करने के बजाय “चिल्लर नहीं है
आज” ऐसा कहते हुए ये लो राजू बच्चों के लिए 5 रूपए के चॉकलेट ले जाओ आज, वही गाने की पुरानी राग अलापने लगे
जो अक्सर खुश होकर पर अलापते थे- “सखी सइयाँ त खूबै कमात है, मंहगाई डाइन खाय जात है।” राजू
भी चॉकलेट पॉकेट में रखते हुए घर की ओर चला गया।
लगभग दो-तीन दिन के बाद राजू फिर घर के
सामान लेने मुरारी बाबू के यहाँ गया। सच्चाई जो भी रही हो आज भी मुरारी बाबू ‘फुटकर पैसे नहीं है’ ऐसा कहते हुए राजू को कुछ चॉकलेट
बिस्किट पकड़ाकर बिदा कर दिए। राजू अब धीरे-धीरे मुरारी बाबू के इस हरकत से तंग आ चुका
था। खैर! राजू को जब भी घर के सामान लाने के ऑर्डर मिलते वह मुरारी बाबू के यहाँ से
ही लाता। मुरारी बाबू का ‘फुटकर नहीं है’ का यह जुमला लगभग सभी ग्राहकों के साथ था। बात जो भी हो राजू अब मुरारी बाबू
द्वारा दिए जा रहे चॉकलेट और बिस्किट जैसे सामानों को खर्च न करने के बजाय उसे इकट्ठा
करने लगा। धीरे-धीरे अब तक राजू के पास लगभग मुरारी बाबू द्वारा दिए गए 5 रुपए वाले
19 पैकेट बिस्किट और तकरीबन 100 चॉकलेट इकट्ठा हो गए थे।
रोज़मर्रा की भांति राजू, आज भी मुरारी बाबू को घर के सामानों की लिस्ट पकड़ाते हुए बड़े विनम्र भाव से
बोला- सेठ जी इसमें कुछ सामानों के नाम छूट गए हैं उसे मैं मुंह से ही बताय देता हूँ।
थोड़ी ही देर में मुरारी बाबू ने राजू को सामान पैक हो गया है, ज़ोर की आवाज लगाई। शायद इसलिए कि राजू किसी से बात करते-करते थोड़ी दूर चला
गया था। राजू थोड़ा करीब आकर हाँ, मुरारी बाबू कितने पैसे हुए? पूछा। बक पगले आज 125 ही तो हुए हैं मुरारी बाबू ने राजू की तरफ मुंह करके
अपना वही पेट सांग...गुनगुनाते हुए थोड़ा और पास आ गए।
राजू ‘अच्छा’ बोलते हुए पहले से थोड़ा और गंभीर होकर मुरारी बाबू द्वारा अब तक दिए गए 19
बिस्किट के पैकेट और पैंतीस चॉकलेट गिनकर पकड़ाते हुए बोला- ये लो सेठ जी 125 रुपए के
पूरे हैं। हाँ, ठीक से गिन लेना पूरे 125 के तो हैं न, मैं थोड़ा जल्दी में हूँ। चॉकलेट और बिस्किट के पैकेट देखकर मुरारी बाबू थोड़ा
सकपकाए पर...। पर वे जल्द ही अपने कारनामों पर खिसियाते हुए नॉर्मल होकर बोले लाओ
! कोई बात नहीं... बिना गिने ही बिस्किट और चॉकलेट वापस रख लिए। राजू भी घर पहुँचकर
मुरारी बाबू के इस कारनामें को लोगों से साझा करते हुए ठहाके के साथ मुरारी बाबू जो
गाना गाते थे गाने लगा- “सखी सइयाँ त खूबै कमात है, मंहगाई डाइन खाय जात है।”
लेखकीय परिचय-
प्रदीप त्रिपाठी
जन्म- 7 जुलाई, 1992
शैक्षणिक योग्यता- एम.ए. हिन्दी(तुलनात्मक सा.), एम.फिल. हिन्दी (तु.सा.), लोक-साहित्य, एवं कविता-लेखन में विशेष रुचि
संप्रति- साहित्य विभाग, महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, पीएच.डी. में
शोधरत
प्रकाशित रचनाएँ- विभिन्न चर्चित पत्र-पत्रिकाओं (दस्तावेज़, परिकथा, अंतिम जन, वर्तमान साहित्य, अलाव आदि) में शोध-आलेख एवं कविताएं प्रकाशित और 10
से अधिक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तरीय सेमिनारों में प्रपत्र-वाचन एवं सहभागिता ।
संपर्क- साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय, वर्धा
स्थायी पता- महेशपुर, आजमगढ़, उ.प्र., 276137
संपर्क-सूत्र- 08928110451
Email- tripathiexpress@gmail.com
लेखकीय वक्तव्य- अनुभूतियों को शब्दबद्ध करना ही मेरी रचना का ध्येय है।
वर्तमान व्यावसायिक व्यवस्था का एक सफल एवं सहभागी अवलोकन को व्यक्त करती है। कहानी बहुत ही सरलता से समसामयिक व्यवसायिकता की नकारात्मक कला पर एक चोट करती है। प्रदीप जी को बहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteअवलोकन के लिए धन्यवाद सर !
ReplyDeleteभाई प्रदीप जी ये कहानी नहीं बल्कि वर्तमान ग्राहक के हृदय की वो टीस है जिसे वो व्यक्त नहीं कर पाता और कसमसा कर रह जाता है , धन्यवाद, इस समस्या और इसके समाधान को शब्दों में पिरोकर कहानी रूप में आम जन मानस तक पाहुचाने के लिए।
ReplyDeleteशुक्रिया, सौरभ जी
Deleteबाजारवाद के सच की एक झलक देती यह कहानी,बेजोड़ है । बात तो बड़ी साधारण सी है ,लेकिन समय और संवेदना का सवाल गंभीर । बजरवाद का विकल्प बाजार नहीं हो सकता , यह इस कहानी की मूल थीम है । आज के बुद्धिजीवी बजारवाद का विरोध तो करते हैं लेकिन बाजार के भीतर ही रहते हैं । इस तथ्य पर सार्थक व्यंग करती यह कहानी लाजवाब है ।
ReplyDeleteभाई शैलेन्द्र शुक्ल जी के प्रति शुक्रिया एवं आभार! यह इस लिए भी कि इस कहानी में जो गाने की छोटी सी बोल है, वह उन्हीं के द्वारा दी हुई है, (इसके पहले इसमें गाने का दूसरा टुकड़ा था जो उन्हीं के द्वारा बदला गया है ) शायद इससे इस कहानी को और मजबूती मिली हो... पुनः धन्यवाद !
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