अपने युग की
समकालीन कविताओं में एक पहचान बनाते हुए युवा-कवि अस्मुरारी नन्दन मिश्र साहित्य
की देहरी पर नजर आते हैं। इनकी कविताएं एक भारतीय तरुण मन की आर्त पुकार हैं, वह अपने समय की विसंगतियों और
संघर्षों को काव्य-लेखन में बखूबी अभिव्यक्त करते आए हैं। वह कविता के मामले में काफी
संवेदनशील दिखाई पड़ते हैं, यह संवेदनशीलता उनकी निजता और सामाजिकता
से उपजी है। उनका जीवन और कवि का जीवन दोनों अलग-अलग नहीं है, वह जीवन में कविता और कविता में जीवन को अभिव्यक्त करते नजर आते हैं। जैसा
कि कहा जाता है की एक तरुण कवि को प्रेम कविताएं जरूर लिखनी चाहिए, उन्होंने प्रेम पर सिर्फ कविताएं ही नहीं लिखी प्रेम को शिद्दत के साथ जिया
भी है। अस्मुरारी जी की कविताएं हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं (साखी, संभाव्य, संवदिया, पक्षधर, बया, सर्वनाम, परिंदे, अक्षर आदि) में प्रकाशित होती रही हैं। (लेखकीय परिचय शैलेंद्र कुमार शुक्ल
से)
गौरैया के नाम एक और कविता
एकतरफा युद्धविराम
गौरैया के नाम एक और कविता
आँगन
में छींटी हुई खुद्दी
बिखरा
हुआ चाउर
ओसारे
की छानी में लटकी
धान
की पहली पाँच बालियाँ
चौरे
पर रखा कटोरी भर पानी
यही
तो बुलाते हैं गौरैयों को
यही
तो देते हैं जमीन कविताओं को
इनसे
अलग जीवन कहाँ हो सकेगा
प्रेम क्या अलग होता होगा
गौरैयों से
अलगनी
पर उचरती गौरैयों-सी ही तो होती होगी इच्छाएँ
सपने
तो उसी रंग के होते हैं
जिस
रंग में रंग गौरैया उड़ा दिया करते हैं बच्चे
और
दौड़ते फिरते हैं गली-गली
मेरी
चिरैया-मेरी चिरैया कह
आँगन
में चहकती गौरैयों से अलग क्या होती होगी
कोई
उमंग
यही
तो चहक कर लाती है सुबह
यही
तो शाम को सुलाती है
रात
की गोद में लोरी सुना
धूल
में नहाकर यही लाती है बारिश
इसी
के सेने से बनती है
गुनगुनी
धूप शरत की
इसी
के चुनमुन के साथ जनमता है वसंत
मुझे हर अक्षर एक गौरैया
लगता है
शब्द
है चुनमुन-चुनमुन से भरा-पूरा घोंसला
वाक्य
सुबह की धूप में कतार बेकतार खड़ी गौरैया
मेरे पाठक!
मैं
कवि नहीं हूँ
मैं
तो बस एक हँकारा बनकर रहना चाहता हूँ
जो
हँकाते रहे बिलाड़ों को
खदेड़ता
रहे कविता और जीवन के आँगन से
कि
निर्भय चहकती-फुदकती रहे गौरैया
गौरैया
के बिना आखिर कविता कैसे हो सकती है
कितना भयानक होगा
कविता
में गौरैया का मरना
कितना
नीरस होगा
उसका
नहीं होना...
मैं
तो यही सोच-सोच कर निराश हो जाया करता हूँ
ओ
गौरैया!
तुम्हारे
गायब होते जाने से सहम गयी हैं बेटियाँ
आशंकित
हैं माँएँ
आँगन
सकते में चुप हैं
उन
कुओं ने बन्द कर लिया है अपना मुँह
जिनके
ताखों पर बना रहती थी घोंसला
छानी
में लटकी धान की बालियाँ सूख कर रह गयी हैं
चावल
की खुद्दी रखी-रखी भुरभुरा गयी...
कितना
सुना है तुम्हारे बिन सबकुछ
ओ
मेरी खुदबुदी गौरैया!
उतर
आओ इस कागज पर
अक्षर
बनकर
चहचहा
उठो एक लय में
फुदक
उठो फड़-फड़-फड़
कि
शब्द पा सकें फुदकन
कि
अर्थ को मिल सके गूँज
कि
भावों को मिल सके उड़ान...
ओ
नन्ही–सी जान!
मैं
अपनी कविता का हरेक खिड़की-दरवाजा खुला रखूँगा
चाहे जिस रास्ते आओ
चाहे जिस रास्ते जाओ
गौरैयो! निर्भय होकर चले आना
निश्चिंत होकर चले जाना
जाना फिर से लौट आने के लिए
आना फिर से कहीं दूर उड़ जाने के लिए
खुद ढूँढ़ लेना
कहीं न कहीं होगा दाना भी, पानी भी
सुस्ताने के लिए अलगनी भी झूलती मिलेगी
मैं लौह पंखों को बंद कर रखूँगा
ताकि तुम इच्छानुरूप खोल सको अपने पंख
जैसे आती-जाती रहती हैं साँसें
बार-बार आना मेरी कविताओं में ओ गौरैयो!
पुनरावृति के लाख आरोपों के बावजूद...
आलोचकों का प्रहार जब असह्य हो
तो उन्हें धत्ता बता कर एकाएक उड़ जाना सब
अपने वर्णों और शब्दों और अर्थों और भावों के साथ
कि आकाश में इधर-उधर चारों तरफ गौरैया ही गौरैया हों
और गम्भीरता के पुतलों के पास बस कोरा कागज...
चाहे जिस रास्ते आओ
चाहे जिस रास्ते जाओ
गौरैयो! निर्भय होकर चले आना
निश्चिंत होकर चले जाना
जाना फिर से लौट आने के लिए
आना फिर से कहीं दूर उड़ जाने के लिए
खुद ढूँढ़ लेना
कहीं न कहीं होगा दाना भी, पानी भी
सुस्ताने के लिए अलगनी भी झूलती मिलेगी
मैं लौह पंखों को बंद कर रखूँगा
ताकि तुम इच्छानुरूप खोल सको अपने पंख
जैसे आती-जाती रहती हैं साँसें
बार-बार आना मेरी कविताओं में ओ गौरैयो!
पुनरावृति के लाख आरोपों के बावजूद...
आलोचकों का प्रहार जब असह्य हो
तो उन्हें धत्ता बता कर एकाएक उड़ जाना सब
अपने वर्णों और शब्दों और अर्थों और भावों के साथ
कि आकाश में इधर-उधर चारों तरफ गौरैया ही गौरैया हों
और गम्भीरता के पुतलों के पास बस कोरा कागज...
एक
अप्रतिबद्ध कवि का बयान
जीवन
में जितनी काट-छाँट थी
कि
चाहे जितना बचा जाये
आ
ही जाती रही कविताओं में
यदि
मेरी कविता में कहीं-कहीं शब्द न दिखकर
केवल
काट-छाँट दिखती है
तो
इसका अर्थ कदापि नहीं कि अपनी शब्द सीमा को
छिपा
लिया है मैंने
आड़ी-तिरछी
रेखाओं में
यह
मेरे जीवन का ही महत्तर दोष रहा है..
यूँ
कई बार इच्छा हुई कि सफ कर दूँ कविता
एक
नये कागज पर
लेकिन
कागज की कमी शब्दों से भी अधिक रही...
मैंने
एक निर्दोष और स्वच्छ कविता देने के बजाय
एक
कागज बचा लेने को ज्यादा महत्त्व दिया
और
जिस कागज पर कविता से अधिक काट-छाँट रही
उसे
भी फेंका नहीं कभी
पतंग
बना उड़ा दिया आसमान में
यूँ
कई-कई कविताएँ बच्चों की उमंगों संग
पतंग
बन कर उड़ती रहीं बेपरवाह
मित्रो!
मैं कविता की लड़ाई से अधिक
कागज
की लड़ाई लड़ता रहा
स्वीकार
करता हूँ
मैं
प्रतिबद्ध कवि कभी नहीं रहा...
एकतरफा युद्धविराम
मैं
एक कायर हूँ
युद्ध
के नाम से भागता रहा हूँ
विभत्सताएँ
मुझे झकझोर देती हैं
शिश्न
तक में उतर आती है एक झुरझुरी
मैं
हर हालत में बचना चाहता हूँ
खूनी
माहौल से
वैसे
जब भी पढ़ता हूँ
युद्ध
की कविताएँ
मुझमें
भी कुछ तेज गति से दौड़ जाता है
लेकिन
शीघ्र ही ये कविताएँ खोखली लगती हैं मुझे
मुझमें
नहीं उतरता गीता-ज्ञान
योगेश्वर
का एक भी तर्क मुझे प्रेरित नहीं कर पाता
युद्ध
के लिए
मैं किसी भी धर्म युद्ध को
नहीं जानता
मैं
किसी भी विचार युद्ध को नहीं जानता
इतिहास
के उस बुजुर्ग ने पड़े-पड़े
जितनी
भी कहानियाँ सुनाई हैं मुझे
उन
सबमें शैतानी जीतें थीं
कहीं
धर्म और विचार जीतता नहीं देखा उसने भी...
आशंकाओं
के प्रदूषित वातावरण में साँस लेता मैं
अपनी
और अपने जैसों की लम्बी उम्र की दुआ माँगता हूँ
कटे
हाथों
कुचले
सिरों
बर्बर
नारों से बचाओ मुझे
अनाथ
बच्चे
बलत्कृत
औरतें
विकलांग
युवा
बेसहारे
वृद्ध
सभी
उतर गये हैं मुझमें
बचाओ
मुझे
मैं
कायर हूँ...
कर
रहा हूँ युद्ध का पुरजोर विरोध
यह
जानते हुए भी
कि
रोका नहीं जा सकता इसे सिर्फ एक तरफ से...
कुछ करो
कोई
बाग बगीचा नहीं है बाहर
न
मलय-गिरि की गोद में है अपना घर
कोई
शीतल-सुगंधित-समीर नहीं आस-पास
दूर
नदी की धार सूख गयी है
बेकार
है
नमी
की आस
कोई
नहीं बजाता वहाँ वंशी
सुरीली
धुन की प्यास लिये खत्म हो जाएगी साँस
आसमान
का नीलापन खो गया है
कहीं
धुआँ-ही-धुआँ
है बस
घुटनभरा, तप्त
घोर
अंधेरे सा काला
पक्षियों
ने उड़ना बंद कर रखा है
तितलियाँ
बेदम हो गिर रहीं
पंखुड़ियाँ
हो रहीं जर्द
जमाने
भर की गर्द भरे माहौल में खिड़कियाँ
बंद
ही रहने दो…
वर्ना
कुछ करो
माहौल
बदलने को
जीने
को...
अकेलेपन के विरोध में कविता
1(जिसे हम अकेलापन कहते हैं)
बंद
कमरे में
सिगरेटों
में सुलगाता खुद को
जिंदगी
की अनसुलझी साँसों के बीच
जब
होता है कोई
उसी
समय दरवाजे के बाहर
गुजरती
होती है पूरी दुनिया
अंदर
एक लाचारी होती है
लकीर
को लाँघ न पाने की
नातजुर्बेकारी
होती है
घोंघापन
होता है
खुद
को अलग समझने की बीमारी होती है
हाँ! कभी-कभी होती है
बाहर
के रेले की उपेक्षा भी
लेकिन
किस उपेक्षाभान में उम्मीदशून्यता रही है आजतक
जिसे हम कहते हैं घोर
अकेलापन
उसमें
आवाजाही कर रही होती हैं
कई-कई
जिंदगियाँ
एक
साथ...
2. (अकेले तो एक मौत तक नहीं आती)
क्या
आपको लगता है
अपने
गमछे में लटका किसान
मरा
है अकेलेपन में
अकेले
अकेला रहता तो कभी नहीं
मरता यूँ
वह
जीता रहा था कई-कई उम्मीदों को सहारा दिये
और
कई-कई नाउम्मीदों से जूझता
अकेले नहीं मरा करता कोई
किसान
के पहले मरते हैं उसके बैल
उससे
भी पहले मरती हैं फसलें
फसलों
से भी पहले मर जाता है मौसम पर से विश्वास
उसके
मरने के साथ दीखते हैं
कई
मरे हुए नारे
साँस
उखड़ी योजनाएँ
सूख
कर अकड़ी हुई संवेदनाएँ
अकेले तो एक मौत तक नहीं
आती...
3. (एकल कुछ नहीं
होता)
हमारे
कार्यक्रम एकल नहीं होते कोई
हमारे
गीतों में कुहकते हैं कई-कई कंठ
हमारी
नाच में थिरक उठते हैं कई-कई पाँव
हमारे
हँसने से गूँज उठता है जंगल मैदान
हमारे
क्रोध से खिसक पड़ती हैं चट्टानें अपनी जगह से
हमें किसी भी मंच पर अकेले
की प्रस्तुति नहीं देनी...
हम एक समाज हैं
हम
एक समुदाय हैं
किसी
एक की पीड़ा
एक
की खुशी
एक
का प्यार
एक
के सपने
सिर्फ
एक तक
अपरिचित
हैं हमारे लिए
हमारा
जीना-मरना, शादी-विवाह, काज-परोजन
समूहिक
उत्सव रहे हैं सदा से
धान के तैयार खेत में
हमारी रोपनहारिनें
उतरती
हैं झुंड की झुंड
कोरस
में चलते हैं उनके गीत
उनके
दुख, उनका प्यार, उनका विरोध, उनकी कहानी
सभी
सम्मिलित हैं उनमें
हमारी गायें-भैंसे-कुत्ते
तक रहते आए हैं साथ-साथ
और
सच यही है कि एकल कुछ नहीं होता
हमारे
खेल, हमारे तमाशे, हमारे शिकार
सब
साझे होते हैं
और
जो तुम अपनी भाषा में घुसेड़ चुके हो जबरन
शेर
के अकेले शिकार का मुहावरा
तो
इसकी सच्चाई तो जान गये होंगे तुम्हारे बच्चे भी
डिस्कवरी
चैनल देख-देख
शेर
भी शिकार झुंड में ही करता है...
हमारा जीना अकेले नहीं हुआ
कभी
और
सुनो!
हम
अकेले मरेंगे भी नहीं
हमारे
मरने पर नदियाँ सूख जाएँगी
जल
जाएँगे जंगल
मैदान
बिंध जाएँगे दरारों से
पर्वत
टूट-टूट गिरेंगे एक दूजे पर
और
सागर होगा इतना खारा
मानो
सबकुछ गलाने के लिए ही बना हो...
तो
विष्णुओ!
हमें
अकेले चिह्नित नहीं होना किसी ध्रुव-सदृश्य
हम
सम्पूर्ण आकाश गंगा में व्यापेंगे
हम
दिशाओं की ओर संकेत नहीं करेंगे
हम
दिशाओं को अपनी इच्छा से थापेंगे
अपनी
जलावन के लिए
गोल-गोल
गोयठों की तरह...
4. (एक गीत)
आओ
साथी!
निपट
अकेला क्यों रहना है
घुट-घुट
सबकुछ क्यों सहना है
क्यों
मिट जाएँ बिखर बूँद-से
धार-धार
हमको बहना है
आती-जाती
साँस–साँस में
अपनी
साँस मिलाओ साथी!
आओ
साथी!
कौन
अकेले गीत में होता
कौन
अकेले प्रीत में होता
हार
अकेले का प्रतिफल है
कौन
अकेले जीत में होता
हार
के विकट बियाबान में
जीत
के ढोल बजाओ साथी
आओ
साथी!
हाथ
नहीं, हथियार नहीं कम
गीत
नहीं कम, प्यार नहीं कम
सुख-दुख
सबकुछ साझा कर लो
जग
भेंटो अँकवार नहीं कम
कितना
विस्तृत मन का आँगन
अपनों
को अपनाओ साथी!
आओ
साथी!!
5. (तुम्हारा साथ होना)
जब
मैं लिख रहा हूँ
अकेलेपन
के विरोध में कविता
तुम्हारा
साथ होना कितनी तसल्ली देता है
एक खटके में ही
चौंक
उठ जाती रही हो तुम
और
अभी दर्द में
मेरे
सीने में मुँह छिपाए
कितना
सहज है तुम्हारा सोना
जैसे
विश्वास का समुंदर
अपनी
प्रगाढ़ता में लहरहीन हो
ओ
मेरे जीवनसाथी!
संपर्क-
अस्मुरारी नन्दन मिश्र, केंद्रीय विद्यालय रायगड़ा म्युनिसिपल कॉम्प्लेक्स, रायगड़ा, ओडिशा 765001, मो.नं.-- 9692934211
अस्मुरारी नन्दन मिश्र, केंद्रीय विद्यालय रायगड़ा म्युनिसिपल कॉम्प्लेक्स, रायगड़ा, ओडिशा 765001, मो.नं.-- 9692934211
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