किसी भी कवि अथवा लेखक की वास्तविक पहचान उसकी रचना से होती है। रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ सच्चे
अर्थों में इस बात के मुकम्मल गवाह हैं। कविता सुनाने के नए अंदाज के कारण अधिक लोकप्रिय
रहे विद्रोही हमारे बीच न होते हुए भी कालजयी हैं। विद्रोही मूलतः प्रगतिशील चेतना
के कवि हैं। निडरता, अक्खड़ता और प्रतिरोध विद्रोही के कविता की सबसे बड़ी ताकत तो है ही, पहचान भी है। मिसाल के तौर पर
उनकी कविता ‘जन-गण-मन’ की कुछ
पंक्तियाँ देखी जा सकती है। वे लिखते हैं- “मैं भी मरूँगा/ और भारत भाग्य के
विधाता भी मरेंगे/ लेकिन मैं चाहता हूँ पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें/ फिर भारत
भाग्य विधाता मरें/ फिर साधू के काका मरें/ यानी सारे बड़े लोग पहले मर लें/ फिर
मैं मरूँ आराम से।” निश्चित रूप से भारत-भाग्य विधाता को चुनौती देना सबके
बूते की बात नहीं, राष्ट्रगान का इससे बड़ा अपमान और क्या हो
सकता है? विद्रोही को जो कहना था, ताउम्र
खुलकर कहा। उन्होंने सामाजिक विसंगतियों, अराजकताओं के
छल-छद्म की कलई खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। विद्रोही ने पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता जैसी विद्रूपताओं का जमकर विरोध किया। उनकी कविता ‘औरत’ की आखिरी पंक्तियाँ बतौर उदाहरण देखी जा सकती हैं-
‘इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया
गया/ मैं नहीं जानता/ लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी/ मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी/ जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?/ मैं नहीं जानता/ लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी/ और यह मैं नहीं
होने दूँगा।’ कवि अपने अतीत के साथ-साथ
वर्तमान से कहीं ज्यादा भविष्य को लेकर चिंतित है। जब वह यह कहते हैं कि ‘मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी/ जिसे सबसे अंत
में जलाया जाएगा?/ मैं नहीं जानता/ लेकिन जो भी होगी मेरी
बेटी होगी/ और यह मैं नहीं होने दूँगा।’ इससे यह भी स्पष्ट
है कि विद्रोही अपने समय और समाज को लेकर जितना चिंतित हैं उतना ही सचेत भी हैं। निश्चित
तौर प्रतिरोध ही विद्रोही को साथ ही उनकी कविता को ताकत देता है।
यह बात सच है कि विद्रोही
आजीवन आसमान से भगवान को उखाड़कर धान उगाने की जद्दोजहद में लगे रहे। वे आम जनता, किसानों, मजदूरों के
शोषण एवं संघर्ष का पक्ष लेते हुए सत्ता-व्यवस्था पर लगातार सवाल उठाते रहे। विद्रोही
की कविता ‘नई खेती’ में उनके तल्ख
अंदाज को देखा जा सकता है- “मैं किसान हूँ/ आसमान में
धान बो रहा हूँ/ कुछ लोग कह रहे हैं कि अरे पगले ! आसमान में धान नहीं जमा करता/
मैं कहता हूँ पगले!/ अगर जमीन पर भगवान जम सकता है/ तो आसमान में धान भी जम सकता
है/ और अब तो दोनों में से कोई एक होकर ही रहेगा/ या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा/ या
तो आसमान में धान जमेगा।” वास्तव में
विद्रोही सनकी मिज़ाज के कवि थे उन्होंने किसी को नहीं बख़्शा। उनकी सनक जायज़ थी। उनके इसी तेवर के कारण
तकरीबन 1980 के आस-पास छात्र-आंदोलन के मसले को लेकर जे.एन.यू. प्रशासन द्वारा उन्हें
निष्कासित कर दिया गया, उन्होंने वहीं से अपनी शिक्षा को
तिलांजलि दे दी बावजूद इसके न ही उनका रंग बदला न ही ढंग ही। उनके तेवर तल्ख जरूर
हुए। मिसाल के तौर पर उनकी कविता ‘गुरिल्ले’ के इस अंश को देखा जा सकता है- ‘हमारे खुरदुरे पाँव की ठोकर से/ धंसक सकती है तुम्हारी ये जमीन/ हमारे
खर्राए हुए हाथों की रगड़ से/ लहूलुहान हो सकता है तुम्हारा कोमल आसमान/ हम अपने
खून चूते नाखूनों से/ चीर देंगे तुम्हारे मखमली गलीचों को/ और जब हम एक दिन जमीन से
लेकर आसमान तक/ खड़े-खड़ फाड़ देंगे तुम्हारी मेहराबें/ तो न तो उसमें से कोई/ कच्छप
निकलेगा न ही कोई नरसिंह.../ तुम सूअरों से लेकर सिंहों तक/ सारे जानवरों के
स्वभाव अपना लो/ मगर, हम तो गुरिल्लों की औलाद हैं,/ और गुरिल्ले ही रहेंगे’ विद्रोही की
कविताएं सपाटबयानी होते हुए भी झकझोर देती हैं।
विद्रोही की कविताओं की एक खूबी
यह है कि वे कविताओं के मार्फ़त जनता से सीधे-सीधे सवाल-जवाब करते हैं, संवाद करते हैं। उनसे सामान्य बात-चीत करना
भी अपने आपमें कविता रचने जैसा था। जब वे लिखते हैं कि “ये
लाश जली नहीं जलाई गई हैं / ये हड्डियाँ बिखरी नहीं बिखेरी
गई हैं/ ये आग लगी नहीं लगाई गई है ”
वास्तव में यह पंक्तियाँ कोई सामान्य वक्तव्य नहीं, यह एक
ऐसी सच्चाई है जिसे कहने और मुकरने में भी माद्दा की जरूरत होती है। विद्रोही के
अंदर ऐसा जज़्बा था उन्होंने कहने के साथ-साथ कई-कई बार चुनौतियाँ भी दी और लोगों
को आगाह भी किया। उन्होंने लिखा है- “नांचने का शौक एक बार सबको होता है/ लेकिन पैरों में जिंदगी बांधकर नहीं
नाचा जाता/ जिंदगी कोई घुंघुरू नहीं है/ और न ही वो बच्चों का झुनझुना है.../ कब तक थामेंगे कमजोर हाथ/पहाड़ सा दिन और वज्र
सी रातें/ कब तक चलेंगी खून की कुल्लियों के बीच सांसें।” विद्रोही की कविताएं निश्चित तौर पर प्रतिरोध की क्षमता को चौगुनी कर देती
हैं। रमाशंकर यादव का ‘विद्रोही’ बनना
एक प्रक्रिया थी। उनके जीवन-शैली एवं स्वभाव के अनुरूप उन्हें यह तखल्लुस दिया गया
जिसे उन्होंने ‘जीते
जी’ साकार किया। विद्रोही
जी कबीर, नागार्जुन, धूमिल एवं अदम की परंपरा की अगली कड़ी हैं... बेसक उन्हें हिंदी जगत में
(जे. एन. यू. परिसर को छोड़कर) वह ओहदा नहीं मिला जो मिलना चाहिए था।
बड़ी कविता वही होती हैं जो कम
से कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कह जाय, इस संदर्भ में विद्रोही की कविताएँ उल्लेखनीय है। वह एक सुलझे हुए कवि
हैं। उन्हें कविता की गहरी समझ है। उनके द्वारा सामान्य तरीके से कही गई बात भी
गंभीर होती है। जब वे कहते हैं- “मैं अहीर हूँ ये दुनिया मेरी भैंस है/मैं
उसे दूह रहा हूँ / और कुछ लोग उसे कुदा रहे
हैं/ ये कौन लोग हैं जो कुदा रहे हैं/ आपको पता है? क्यों कुदा
रहे हैं/ ये भी पता है?/ लेकिन इस बात का पता न आपको है, न हमको है, न उनको है...कि इस कुदाने का परिणाम
क्या होगा? हाँ इतना तो पता है कि नुकसान हर हालत में हमारा
ही होगा/ क्योंकि भैंस भी हमारी है, दुनिया भी हमारी है।” ‘यह दुनिया मेरी भैंस है’ कहकर विद्रोही चुप नहीं
होते। उनकी यह चिंता निजी नहीं है। विद्रोही सामान्य जीवन जी रहे किसानों, मजदूरों, दलित, स्त्री, आदिवासी जनता के प्रतिनिधि हैं।
रमाशंकर विद्रोही का जाना
हिंदी-जगत के लिए बड़ी क्षति है। प्रगतिशील विचारधारा के जीवट कवि विद्रोही अपनी
रचनात्मकता एवं त्याग के कारण हमेशा-हमेशा याद किए जाते रहेंगे...अपनी कविताओं के
लिए, अपने तेवर के लिए, अपने अनूठे अंदाज के लिए।
(डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, 11 दिसंबर, 2016 को प्रकाशित)
@ प्रदीप त्रिपाठी
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 27 जून 2020 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!