रॉल
फॉक्स का एक कथन है- “साहित्य में जीवन के विषय में लेखक
के राय की दरकार नहीं, वहाँ जीवन की तस्वीर चाहिए। जीवन
की यह तस्वीर स्वयं लेखक की दृष्टि को स्पष्ट कर देती है।” भीष्म साहनी की रचना-दृष्टि के संदर्भ में यह उद्धरण बेहद महत्वपूर्ण एवं सटीक
है। वास्तव में तमाम आपाधापी एवं उठापटक के युग में साहनी जी की रचना-दृष्टि
बिल्कुल अलग थी। उपन्यास ‘तमस’ कहानी ‘चीफ की दावत’ और नाटक ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ जैसी कालजयी रचनाएँ इस बात की मुकम्मल
गवाह हैं। भीष्म साहनी ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने स्वतंत्रता-पूर्व एवं
स्वातंत्र्योत्तर काल के बदलते हुए जीवन की तस्वीर को बड़े ही करीब से देखा है।
उनकी लेखकीय संवेदना का मुख्य आधार जनता की पीड़ा है। जीवन के छोटे से छोटे प्रसंगों के माध्यम से
बड़ी बात कह देना भीष्म साहनी की अपनी ताकत है। वास्तव में ‘चीफ की दावत’ कहानी इस बात की मिसाल है- “अब घर का फालतू सामान आलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा।
तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या
होगा?” कहानी का बेहद छोटा सा
प्रसंग रचना के पूरे मर्म को स्पष्ट कर देता है। शामनाथ के लिए अपनी निरक्षर और
बूढ़ी माँ ही एक समस्या हो जाती है जैसे कि घर के अन्य फालतू सामान। शामनाथ अपनी माँ को इस घर से उस घर में
कूड़े की तरह छिपाता फिरता है और माँ अपने बेटे की खुशी एवं हित को ध्यान में रखते
हुए कुछ भी करने को तैयार हो जाती है। वास्तव में यह कहानी स्वार्थपरता, संवेदनहीनता, गहरे विसंगतिबोध एवं
विडंबना की कहानी है।
भीष्म जी को अपने समय एवं समाज का गहरा
युगबोध है। उन्होंने अपनी रचनाओं में निम्न मध्यवर्गीय जनमानस की बेबसी एवं उनकी
मनः स्थितियों का यथार्थ अंकन किया है। वह एक प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस संदर्भ में
वे स्वयं कहते हैं- “लेखक का संवेदन अपने समय के यथार्थ
को महसूस करना और आँकना है। उसके अंतर्द्वंद्व और उसके अंतर्विरोधों के प्रति सचेत
होना है। इसी दृष्टि से उसकी पकड़ समाज के भीतर चलने वाले संघर्ष पर ज्यादा मजबूत
होती है और परिवर्तन की दिशा का उसे भास होने लगता है। इसी के बल पर वह राजनीति के
आगे होता है, पीछे नहीं। वह सामाजिक जीवन के ठोस
यथार्थ से जुड़ा होने पर ज्यादा दूर तक न भी हो, कुछ तक तो जरूर
ही देख सकता है।” (मेरे साक्षात्कार: भीष्म साहनी, पृष्ठ- 67)
भीष्म जी का मानना है कि विचारधारा लेखक
को तभी निर्दिष्ट कर सकती है, जब वह लेखक के संवेदन
का, उसके रचनात्मक व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाय। यह सच है कि उन्होंने अपनी
रचनाओं में कभी भी विचारधारा को हावी नहीं होने दिया हाँ, विचारधारा से जुड़ना अथवा प्रतिबद्ध होना वह एक रचनाकार के लिए सकारात्मक मानते
हैं। इस संदर्भ में उनका साफ मंतव्य है- “लेखक अपने परिवेश से किसी विचारधारा के नाते नहीं जुड़ता। विचारधारा उसे दृष्टि
देती है,
वह उसे समाज को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने समझने
में सहायक होती है। विचार कोई सांचा नहीं जिसमें रचना ढाली जाए। विचारधारा का रचना में योगदान वास्तविकता और यथार्थ से टकराकर होता है। वामपंथी विचारधारा ने निश्चय ही हमारे दृष्टि-क्षेत्र के साथ एक नया आयाम
जोड़ा। वह अपहृत जनता के विशाल समुदाय को हमारे दृष्टि-क्षेत्र में ले आयी, जिससे हम सामाजिक गतिविधि को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख पाए। इस तरह
विचारधारा लेखक को दृष्टि देती है, पर विचारधारा
जीवन का पर्याय नहीं होती। लेखक मूलतः जीवन से ही जुड़ता है। उसी में लक्षित होने
वाली विसंगतियाँ, विडंबनाएँ, अंतर्विरोध उसकी रचनाओं के विषय बनते हैं, लेखक का सरोकार
जीवन से होता है, और सच पूछे तो जीवन की कसौटी पर ही
सभी विचारधाराओं और व्यवस्थाओं का खरापन भी परखा और आँका जाता है। उसी भांति जीवन
की कसौटी पर ही किसी लेखक की रचनाएँ भी परखी और आँकी जाती हैं। कहाँ तक उसमें जीवन
की सच्चाई की झलक मिलती है, कहाँ तक मानव हृदय का स्पंदन, उसकी छटपटाहट उसके हर्ष-विशाद, उसकी
आकांक्षाएँ व्यक्त हो पाती हैं, उसी में उनकी सार्थकता
भी निहित होती है।” (आधार-चयन: कहानियाँ- भीष्म साहनी, पुस्तक की भूमिका से) विचारधारा के
सवाल पर भीष्म जी की दृष्टि बिल्कुल साफ थी- “जिस विचारधारा में मेरा यकीन है, वह मेरी जीवन-दृष्टि को प्रभावित करेगी और मेरी रचनाएँ भी
मेरी जीवन-दृष्टि के अनुरूप होगी। पर कोई भी लेखक मात्र विचारधारा के बल पर लिखता
हो, ऐसा नहीं है। विचारधारा से प्रेरित होते हुए भी वह
विचारधारा से चिपटा नहीं होता। वह विचारधारा को त्याग भी सकता है।” (भीष्म साहनी
की आत्मकथा, पृ. 265) भीष्म साहनी मूलतः प्रगतिशील
विचारधारा से प्रतिबद्ध थे। उनका मानना था कि प्रगतिशीलता कोई चौखटा नहीं, जिसमें कि आप चीजों को फिट कर दें। प्रगतिशीलता कला विरोधी या व्यक्ति
स्वातंत्र्य विरोधी भी नहीं होती मगर वह नकारात्मक भी नहीं होती। उनकी नजर में
प्रगतिशीलता एक व्यापक और सामाजिक सोच है। (भीष्म साहनी की आत्मकथा, पृ. 250) भीष्म साहनी ऐसे लेखक थे जिन्होंने अपने ऊपर कभी भी
विचारधारा को हावी नहीं होने दिया। वह ऐसी राजनीति या विचारधारा के पक्षधर नहीं थे
जिसका साहित्य के शाश्वत मूल्यों से कोई मेल न हो। साहित्यकार का क्षेत्र है
साहित्य, राजनीति नहीं। ऐसी राजनीति तो हरगिज
नहीं जो उसे संकीर्णता और कट्टरता की ओर ले जाय।
भीष्म साहनी की रचनाएँ जीवन के यथार्थ
से गहरे रूप में संपृक्त हैं। वे सदैव मानवीय मूल्यों के हिमायती रहे। साहनी जी ने
जीवन में हमेशा धर्मनिरपेक्षता को ही महत्व दिया। सांप्रदायिकता, धार्मिक-पाखंड जैसी चीजों को वह समाज के लिए घातक मानते थे, उन्होंने जीवन को जैसा जिया, देखा, महसूस किया उसे अभिव्यक्ति दी। भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’
अपने दौर का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उन्होंने विभाजन के दर्द
को इस उपन्यास में बहुत ही साफ़गोई के साथ व्यक्त किया है। वे लिखते हैं- “क्या बात करते हो बाबूजी, अब यह ख़याल ही दिमाग
से निकाल दो। अब हिंदुओं के मुहल्ले में न तो कोई मुसलमान रहेगा और न ही मुसलमानों
के मुहल्ले में कोई हिंदू। इसे पत्थर की लकीर समझो। पाकिस्तान बने या न बने, अब मुहल्ले अलग-अलग होंगे साफ बात है।” निश्चित तौर
भीष्म जी ने अपने इस उपन्यास में हिंदू व मुस्लिम रिश्ते को संवेदना के धरातल पर
समझने की कोशिश की है। उन्होंने अपनी रचनाओं में व्यक्ति से ज्यादा परिस्थितियों
को महत्व दिया है। ‘अमृत सर आ गया है’ या ‘मुझे मेरे घर छोड़ आओ’
कहानी इसका मुकम्मल उदाहरण है।
भीष्म साहनी व्यवस्था परिवर्तन पर ज़ोर
देते हैं। वे अपनी रचनाओं में हमेशा सवाल उठाते हैं। “ठेकेदार हर मजदूर के भाग्य का देवता होता है। जो उसकी दया बनी रहे तो मजदूर के
हर मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। पर जो देवता के तेवर बदल जाएँ तो अनहोनी भी होकर रहती
है।”
‘गंगो का जाया’ कहानी का यह
प्रसंग बेहद मार्मिक है। भीष्म जी यहाँ तत्कालीन सत्ता व्यवस्था पर तंज कसते हैं।
स्वाधीनता के बाद संयुक्त परिवारों का विघटन, आर्थिक बदहाली, देश-विभाजन, बेरोजगारी, संत्रास, कुंठा, भ्रष्टाचार एवं अवसरवादिता, मोहभंग जैसी
विसंगतियाँ तेजी से बढ़ने लगी थी। ऐसे में भीष्म साहनी अपनी रचनाओं में हर प्रकार
के छद्म,
ढोंग, सामाजिक विसंगतियों और
परिवेशगत अंतर्विरोधों की पड़ताल करते हुए एक बेहतर समाज रचना के लिए लेखक की
सक्रिय भूमिका और साझेदारी की बात करते दिखाई देते हैं। वे मानते थे कि एक लेखक की
प्रतिबद्धता अपने जीवन से तथा अपनी कला से होती है। उसे इसके प्रति हमेशा सचेत एवं
ईमानदार रहना चाहिए। भीष्म जी का मानना है कि –“जीवन की
वास्तविकता की उपेक्षा न कर लेखक उसे जितना नजदीक से देखेगा, हमारे साहित्य में उतनी ही अधिक सच्चाई और व्यापकता आएगी और इसी के फलस्वरूप
साहित्य में अधिक विविधता भी आ पाएगी।” (संपादकीय, नई कहानियाँ, अक्टूबर, 1965,
पृ.- 127) भीष्म जी अपनी रचनाशीलता में इन सब चीजों का बेहद
ख़याल रखते हैं। ‘अमृत सर आ गया है’, ‘वाङ्ग्चू’, ‘खून का रिश्ता’, ‘ओ हरामजादे’, ‘चीफ की दावत’ कहानियों के अलावा उनके उपन्यास ‘कुंतों’, ‘बसंती’, ‘तमस’, कड़ियाँ, ‘मैय्यादास की माड़ी’ एवं नाटक ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘हानूश’ आदि जितनी भी रचनाएँ हैं उनमें विषय की
वैविध्यता है। इनकी रचनाओं की पृष्ठभूमि में ऐसी सहज मानवीय यथार्थवादी
संवेदना है जो बगैर किसी कलात्मकता के पाठकों को अभिभूत कर देती है। उन्होंने एक जगह रचना-प्रक्रिया पर चर्चा करते हुए लिखा है- “प्रत्येक लेखक का संवेदन एक जैसा नहीं होता, एक ही जैसे अनुभव रहते हुए किसी में अंकुर फूटता है किसी में नहीं, यहाँ तक कि यदि दो लेखक को एक ही अनुभव से गुजरना पड़े और दोनों उस अनुभव
को लेकर कहानियाँ लिखें, तो दोनों की कहानियाँ भी अलग-अलग
तरह की होंगी। लेखक के संवेदन को उसके संस्कार, उसका परिवेश, उसके अपने अनुभव, उसका पठन-पाठन उसे जीवन-दृष्टि
देते हैं, उसकी साहित्यिक रुचियाँ आदि सभी प्रभावित करते
हैं। ” (आत्मकथा: भीष्म साहनी पृ.-210)
भीष्म जी का मानना था कि सांप्रदायिकता
जैसी समस्या का निपटारा हिंसा के बल पर नहीं किया जा सकता। उनका मंतव्य है- “भारत
जैसे बहुभाषी, बहुजातीय,
बहुधर्मी किसी भी देश में किसी भी जातीय सवाल का हल हिंसात्मक दबाव द्वारा नहीं
खोजा जा सकता। दंगों द्वारा कभी कोई जाति तो कभी कोई, अपना
शक्ति प्रदर्शन करे और यह समझे कि इस आधार पर समाज में संतुलन आ जाएगा, इस प्रकार का तर्क बड़ा गलत और खतरनाक है। शक्ति प्रदर्शन द्वारा हम इस
समस्या का समाधान नहीं कर सकते, न ही राजनैतिक स्तर पर किए
जाने वाले समझौतों द्वारा। निश्चय ही धर्म को राजनीति से अलग करके ही इसका कोई
समाधान संभव होगा। सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देते हुए निजी धार्मिक
मान्यताओं को उसके निजी कर्तव्यों से अलग करते हुए इस नियम का कड़ाई से पालन करते
हुए हम कोई समाधान ढूंढ़ सकते हैं। यह बराबरी का अधिकार सांस्कृतिक स्तर पर और
ज्यादा महत्वपूर्ण है। सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा देना,
साझी सांस्कृतिक विरासत को मान्यता देना, सांस्कृतिक
आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करना, संस्कृति के क्षेत्र में
उदारता और आदर भाव इस तरह से हम कुछ हद तक सांप्रदायिकता के जहर को फैलने से रोक
सकते हैं।”
भीष्म साहनी यथार्थवादी परंपरा के सिद्धहस्त रचनाकार हैं। उनके लेखन में
जिंदगी की पकड़ अचूक है। यही कारण है कि इनकी रचनाओं के पात्रों का वास्तविक जीवन
से गहरा मेल बैठता है। भीष्म जी रचना दृष्टि का फ़लक बहुत व्यापक है। वे रचना के संवेदना पक्ष पर ज़ोर
देते हैं। उनका मानना है कि- “लेखक का संवेदन एक तरह की जमीन होती है। लेखक मात्र
एक घटना से जुड़ा न रहकर उस घटना को पैदा करने वाले कारणों, शक्तियों, तत्त्वों को भी अपनी दृष्टि
क्षेत्र में ले आता है, उनका भी भावना एवं रचनात्मक तर्क के
आधार पर अन्वेषण करता है। ” (मेरे साक्षात्कार: भीष्म साहनी,
पृष्ठ- 14) वे मानते हैं कि मानवीय संवेदना को कला का नैसर्गिक गुण है, इसके बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। भीष्म साहनी जी अपनी रचनाशीलता में इन बातों का
बेहद ख़याल रखते हैं।
भीष्म साहनी की रचना का मुख्य आधार जीवन
की जटिलताएँ हैं। वे किसी भी रचना की निर्मिति में लेखक के व्यक्तित्व को महत्व
देते हैं। उनका मानना है कि लेखक के लिए जीवन ही सर्वोपरि है। साहित्य-रचना सपाट
प्रक्रिया नहीं होती। अभिव्यक्ति कि प्रक्रिया में लेखक का पूरा व्यक्तित्व भाग लेता
है, उसका मस्तिष्क, उसकी
कल्पना, उसका संवेदन या यूं कहें उसका विचार, संस्कार, पूर्वाग्रह, उसकी
मानसिकता, भावनाएँ, उसकी जीवन-दृष्टि
सभी कुछ। निश्चित रूप से भीष्म जी अपने दौर के महत्वपूर्ण लेखक हैं जिन्होंने अपने
समय एवं समाज के जीवन-मूल्यों, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थितियों का बड़ी बेबाकी एवं साफ़गोई के साथ पेश किया
है। उनकी भाषा जनता की भाषा है। भीष्म अपनी जमीन से जुड़े ऐसे हस्ताक्षर हैं जो
शिल्प की बुनावट और भावुकता के बल पर कभी खड़ा होने की कोशिश नहीं करते। वे हमेशा
सामान्य जीवन से उठाए हुए पात्रों के द्वंद्व, क्रियाकलाप एवं सच्चाईयों का अन्वेषण करते नजर
आते हैं। भीष्म जी ने अपनी रचनाओं में स्त्री-अस्मिता के सवालों को बड़ी गंभीरता के
साथ उठाया है। ‘बसंती’, ‘कुंतों’, ‘माधवी’ या ‘गंगो का जाया’ जैसी रचनाएँ इस बात की सशक्त गवाह हैं।
भीष्म साहनी की रचना-दृष्टि अत्यंत व्यापक है। अनुभूति की प्रामाणिकता, व्यापक दृष्टिकोण एवं गहरा इतिहास बोध भीष्म साहनी की रचनाओं को उत्कृष्ट बना देता है। सच्चे अर्थों में भीष्म जी स्वतंत्र भारत के जटिल यथार्थ और द्वन्द्वों से घिरे समाज के जीवन-व्यापार और उसमें निर्मित हो रहे किरदारों को अत्यंत सहजता से पेश करने वाले रचनाकार हैं। उनकी रचनाशीलता की सबसे प्रमुख विशेषता है कि उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए वही भूमि चुनी जिसमें वे जी रहे थे। यही उनके ‘जैनुइन’ होने का रहस्य है। यह स्पष्ट है कि भीष्म साहनी उन गिने-चुने लेखकों में शामिल हैं जिनकी रचनाएँ न सिर्फ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं अपितु हमारे समय एवं समाज का एक ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक दस्तावेज़ है।
भीष्म साहनी की रचना-दृष्टि अत्यंत व्यापक है। अनुभूति की प्रामाणिकता, व्यापक दृष्टिकोण एवं गहरा इतिहास बोध भीष्म साहनी की रचनाओं को उत्कृष्ट बना देता है। सच्चे अर्थों में भीष्म जी स्वतंत्र भारत के जटिल यथार्थ और द्वन्द्वों से घिरे समाज के जीवन-व्यापार और उसमें निर्मित हो रहे किरदारों को अत्यंत सहजता से पेश करने वाले रचनाकार हैं। उनकी रचनाशीलता की सबसे प्रमुख विशेषता है कि उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए वही भूमि चुनी जिसमें वे जी रहे थे। यही उनके ‘जैनुइन’ होने का रहस्य है। यह स्पष्ट है कि भीष्म साहनी उन गिने-चुने लेखकों में शामिल हैं जिनकी रचनाएँ न सिर्फ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं अपितु हमारे समय एवं समाज का एक ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक दस्तावेज़ है।
सहायक ग्रंथ सूची-
1.
दुबे, अभय कुमार (संपा.). (1993). सांप्रदायिकता के स्त्रोत.
दिल्ली: विनय प्रकाशन.
2.
साहनी, भीष्म. (2009). प्रतिनिधि कहानियाँ. नई दिल्ली: राजकमल
प्रकाशन.
3.
साहनी, भीष्म. (1999). तमस. नई दिल्ली : राजकमल
प्रकाशन.
4.
कमलेश्वर. (2015). नई कहानी की भूमिका. नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन.
5.
सिंह, नामवर. (2012). कहानी
नई कहानी. इलाहाबाद : लोकभारती
प्रकाशन.
6.
यशपाल. (2010). मार्क्सवाद.
नई दिल्ली: लोकभारती प्रकाशन.
7.
साहनी, भीष्म. (1998). झरोखे.
नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
लेखकीय परिचय-
@ प्रदीप त्रिपाठी
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
tripathiexpress@gmail.com
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