Saturday, 24 December 2016
Tuesday, 20 December 2016
नित्यानन्द गायेन की कविताएं (प्रस्तुति- जज़्बा ब्लॉग)
“उम्मीद की झूठी तसल्ली पर खड़ा हूँ !
/ झूठ की उम्र लंबी नहीं होती/ जानता हूँ।” कविता की उक्त पंक्तियाँ इस बात की
मुकम्मल गवाही देती हैं कि नित्यानंद गायेन अपने समय के बेखौफ़ कवि हैं। नित्यानन्द
उन गिने-चुने कवियों में शुमार किए जाते हैं जिन्होंने कविता को जीया है। सचमुच
बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात कहने का माद्दा युवा साथी नियानन्द की कविताओं की ताकत
है। ध्यातव्य है, तमाम मोहभंग के बावजूद उनकी कविताओं में उम्मीद हमेशा बरकरार रहती है। ‘मैं
पतझड़ में बसंत लिख रहा हूँ’ कविता इस बात का सशक्त उदाहरण
है। प्रेम उनकी कविताओं का जन्मजात पक्ष है। कविता में प्रेम लिखने की आदत कवि की
पुरानी आदत है। नित्यानन्द की यह खासियत है कि वह बुरे समय में भी इस रंगत से नहीं
चूकते। सचमुच नित्यानन्द फक्कड़ मिजाज के कवि हैं। एक प्रकार से यह कहना यहाँ बेहद
समीचीन होगा कि उनका जीवन ही उनकी कविता है और उनकी कविताएं ही उनका जीवन। काबिल-ए-गौर
है कि नित्यानन्द की कविताओं में जीवन के विविध रंग हैं,
उनके कहने के लहजा बिलकुल लतीफ़ है। कवि की यह विशेषता है कि वह किंकर्तव्यविमूढ़ की
स्थिति में भी कविता लिखने से अपना मुंह नहीं मोड़ते। “मैं उदासी में / तुम्हारे लिए / गीत लिख रहा हूँ” पंक्तियाँ इस बात की मिसाल हैं। मैं यह मानता हूँ सही अर्थों में एक कवि का
परिचय उसकी कविताएं ही होती हैं। तो आइये हम आपको सीधे रू-ब-रू करवाते हैं, नित्यानन्द गायेन की
कविताओं से -
तुम्हारे पक्ष में
तुम्हारे पक्ष में लिखी
सारी कविताएँ मेरी डायरी में
कैद है
तुम्हारी आज़ादी के साथ
उन्हें आज़ाद करूँगा
तुम मजबूरियों से बाहर तो निकलो
एक भरा-पूरा संसार
खड़ा है
तुम्हारे स्वागत में|
सारी कविताएँ मेरी डायरी में
कैद है
तुम्हारी आज़ादी के साथ
उन्हें आज़ाद करूँगा
तुम मजबूरियों से बाहर तो निकलो
एक भरा-पूरा संसार
खड़ा है
तुम्हारे स्वागत में|
झूठ की उम्र लंबी नहीं होती
मुल्क टूटा,
घर टूटा,
टूटे रिश्ते-नाते,
घर टूटा,
टूटे रिश्ते-नाते,
तुम रूठे,
मैं रूठा,
यूँ ही बिखर गये
मैं रूठा,
यूँ ही बिखर गये
उम्मीद की झूठी तसल्ली पर
खड़ा हूँ !
झूठ की उम्र लंबी नहीं होती.
जानता हूँ
खड़ा हूँ !
झूठ की उम्र लंबी नहीं होती.
जानता हूँ
मैं पतझड़ में बसंत लिख रहा हूँ
तुम्हारी सुन्दरता पर फ़िदा होने वाले
महसूस नहीं करेंगे
तुम्हारी वेदना को,
तनहाई को।
वे सभी सुन्दरता के कायल हैं
पसन्द नहीं उन्हें उदासी
अन्धकार से नफ़रत है उन्हें
मैं उदासी में
तुम्हारे लिए
गीत लिख रहा हूँ ...
मैं पतझड़ में
बसन्त लिख रहा हूँ।
महसूस नहीं करेंगे
तुम्हारी वेदना को,
तनहाई को।
वे सभी सुन्दरता के कायल हैं
पसन्द नहीं उन्हें उदासी
अन्धकार से नफ़रत है उन्हें
मैं उदासी में
तुम्हारे लिए
गीत लिख रहा हूँ ...
मैं पतझड़ में
बसन्त लिख रहा हूँ।
उम्मीद
वक्त के इस दौर में
जब आत्महत्या करने को विवश हैं
हमारी सारी संवेदनाएं
उन्हें बचाने के लिए
कविताएँ लिख रहा है
तुम्हारा कवि
हमारी सारी संवेदनाएं
उन्हें बचाने के लिए
कविताएँ लिख रहा है
तुम्हारा कवि
इस उम्मीद के साथ
कि मैं रहूँ या न रहूँ
दुनिया में बची रहेगी
संवेदनाएं,
संवेदनाएं जो मनुष्य होने की
पहली जरुरत है
और मेरे भीतर
बचा रहेगा
तुम्हारा प्रेम।
कि मैं रहूँ या न रहूँ
दुनिया में बची रहेगी
संवेदनाएं,
संवेदनाएं जो मनुष्य होने की
पहली जरुरत है
और मेरे भीतर
बचा रहेगा
तुम्हारा प्रेम।
मेरे दर्द को तुमने कविता बना दिया
दरअसल मैंने
दर्द लिखा हर बार
जिसे तुमने मान लिया
कविता।
मेरे दर्द को
तुमने कविता बना दिया !
दर्द लिखा हर बार
जिसे तुमने मान लिया
कविता।
मेरे दर्द को
तुमने कविता बना दिया !
प्रेम ही खुद में सबसे बड़ी क्रांति है
ख़ुशी लिखना चाहता था
लिख दिया तुम्हारा नाम
लिखना चाहता था 'क्रांति'
और मैंने 'प्रेम' लिख दिया
सदियों से
प्रेम ही खुद में सबसे बड़ी क्रांति है
लिख दिया तुम्हारा नाम
लिखना चाहता था 'क्रांति'
और मैंने 'प्रेम' लिख दिया
सदियों से
प्रेम ही खुद में सबसे बड़ी क्रांति है
जब प्रेम सबसे बड़ा अपराध घोषित हो
चुका है
यह हमारे दौर का
सबसे खूंखार समय है
हत्या बहुत मामूली घटना है इन दिनों
ऐसे समय में
जब प्रेम सबसे बड़ा अपराध घोषित हो चुका है
मैं बेखौफ़ हो कर
लिख रहा हूँ
प्रेम कविताएँ
तुम्हारे लिए
सबसे खूंखार समय है
हत्या बहुत मामूली घटना है इन दिनों
ऐसे समय में
जब प्रेम सबसे बड़ा अपराध घोषित हो चुका है
मैं बेखौफ़ हो कर
लिख रहा हूँ
प्रेम कविताएँ
तुम्हारे लिए
लेखकीय परिचय-
जन्म- 20 अगस्त
1981, शिखरबाली
गाँव, बारुइपुर,
दक्षिण चौबीस परगना, पश्चिम
बंगाल
प्रकाशन- अपने हिस्से का प्रेम (2011) कविता-संग्रह, कविताओं का नेपाली, अंग्रेज़ी, मैथिली
तथा फ़्रांसिसी भाषाओँ में अनुवाद
Sunday, 11 December 2016
प्रगतिशीलता के निकष पर जनकवि विद्रोही
किसी भी कवि अथवा लेखक की वास्तविक पहचान उसकी रचना से होती है। रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ सच्चे
अर्थों में इस बात के मुकम्मल गवाह हैं। कविता सुनाने के नए अंदाज के कारण अधिक लोकप्रिय
रहे विद्रोही हमारे बीच न होते हुए भी कालजयी हैं। विद्रोही मूलतः प्रगतिशील चेतना
के कवि हैं। निडरता, अक्खड़ता और प्रतिरोध विद्रोही के कविता की सबसे बड़ी ताकत तो है ही, पहचान भी है। मिसाल के तौर पर
उनकी कविता ‘जन-गण-मन’ की कुछ
पंक्तियाँ देखी जा सकती है। वे लिखते हैं- “मैं भी मरूँगा/ और भारत भाग्य के
विधाता भी मरेंगे/ लेकिन मैं चाहता हूँ पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें/ फिर भारत
भाग्य विधाता मरें/ फिर साधू के काका मरें/ यानी सारे बड़े लोग पहले मर लें/ फिर
मैं मरूँ आराम से।” निश्चित रूप से भारत-भाग्य विधाता को चुनौती देना सबके
बूते की बात नहीं, राष्ट्रगान का इससे बड़ा अपमान और क्या हो
सकता है? विद्रोही को जो कहना था, ताउम्र
खुलकर कहा। उन्होंने सामाजिक विसंगतियों, अराजकताओं के
छल-छद्म की कलई खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। विद्रोही ने पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता जैसी विद्रूपताओं का जमकर विरोध किया। उनकी कविता ‘औरत’ की आखिरी पंक्तियाँ बतौर उदाहरण देखी जा सकती हैं-
‘इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया
गया/ मैं नहीं जानता/ लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी/ मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी/ जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?/ मैं नहीं जानता/ लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी/ और यह मैं नहीं
होने दूँगा।’ कवि अपने अतीत के साथ-साथ
वर्तमान से कहीं ज्यादा भविष्य को लेकर चिंतित है। जब वह यह कहते हैं कि ‘मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी/ जिसे सबसे अंत
में जलाया जाएगा?/ मैं नहीं जानता/ लेकिन जो भी होगी मेरी
बेटी होगी/ और यह मैं नहीं होने दूँगा।’ इससे यह भी स्पष्ट
है कि विद्रोही अपने समय और समाज को लेकर जितना चिंतित हैं उतना ही सचेत भी हैं। निश्चित
तौर प्रतिरोध ही विद्रोही को साथ ही उनकी कविता को ताकत देता है।
यह बात सच है कि विद्रोही
आजीवन आसमान से भगवान को उखाड़कर धान उगाने की जद्दोजहद में लगे रहे। वे आम जनता, किसानों, मजदूरों के
शोषण एवं संघर्ष का पक्ष लेते हुए सत्ता-व्यवस्था पर लगातार सवाल उठाते रहे। विद्रोही
की कविता ‘नई खेती’ में उनके तल्ख
अंदाज को देखा जा सकता है- “मैं किसान हूँ/ आसमान में
धान बो रहा हूँ/ कुछ लोग कह रहे हैं कि अरे पगले ! आसमान में धान नहीं जमा करता/
मैं कहता हूँ पगले!/ अगर जमीन पर भगवान जम सकता है/ तो आसमान में धान भी जम सकता
है/ और अब तो दोनों में से कोई एक होकर ही रहेगा/ या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा/ या
तो आसमान में धान जमेगा।” वास्तव में
विद्रोही सनकी मिज़ाज के कवि थे उन्होंने किसी को नहीं बख़्शा। उनकी सनक जायज़ थी। उनके इसी तेवर के कारण
तकरीबन 1980 के आस-पास छात्र-आंदोलन के मसले को लेकर जे.एन.यू. प्रशासन द्वारा उन्हें
निष्कासित कर दिया गया, उन्होंने वहीं से अपनी शिक्षा को
तिलांजलि दे दी बावजूद इसके न ही उनका रंग बदला न ही ढंग ही। उनके तेवर तल्ख जरूर
हुए। मिसाल के तौर पर उनकी कविता ‘गुरिल्ले’ के इस अंश को देखा जा सकता है- ‘हमारे खुरदुरे पाँव की ठोकर से/ धंसक सकती है तुम्हारी ये जमीन/ हमारे
खर्राए हुए हाथों की रगड़ से/ लहूलुहान हो सकता है तुम्हारा कोमल आसमान/ हम अपने
खून चूते नाखूनों से/ चीर देंगे तुम्हारे मखमली गलीचों को/ और जब हम एक दिन जमीन से
लेकर आसमान तक/ खड़े-खड़ फाड़ देंगे तुम्हारी मेहराबें/ तो न तो उसमें से कोई/ कच्छप
निकलेगा न ही कोई नरसिंह.../ तुम सूअरों से लेकर सिंहों तक/ सारे जानवरों के
स्वभाव अपना लो/ मगर, हम तो गुरिल्लों की औलाद हैं,/ और गुरिल्ले ही रहेंगे’ विद्रोही की
कविताएं सपाटबयानी होते हुए भी झकझोर देती हैं।
विद्रोही की कविताओं की एक खूबी
यह है कि वे कविताओं के मार्फ़त जनता से सीधे-सीधे सवाल-जवाब करते हैं, संवाद करते हैं। उनसे सामान्य बात-चीत करना
भी अपने आपमें कविता रचने जैसा था। जब वे लिखते हैं कि “ये
लाश जली नहीं जलाई गई हैं / ये हड्डियाँ बिखरी नहीं बिखेरी
गई हैं/ ये आग लगी नहीं लगाई गई है ”
वास्तव में यह पंक्तियाँ कोई सामान्य वक्तव्य नहीं, यह एक
ऐसी सच्चाई है जिसे कहने और मुकरने में भी माद्दा की जरूरत होती है। विद्रोही के
अंदर ऐसा जज़्बा था उन्होंने कहने के साथ-साथ कई-कई बार चुनौतियाँ भी दी और लोगों
को आगाह भी किया। उन्होंने लिखा है- “नांचने का शौक एक बार सबको होता है/ लेकिन पैरों में जिंदगी बांधकर नहीं
नाचा जाता/ जिंदगी कोई घुंघुरू नहीं है/ और न ही वो बच्चों का झुनझुना है.../ कब तक थामेंगे कमजोर हाथ/पहाड़ सा दिन और वज्र
सी रातें/ कब तक चलेंगी खून की कुल्लियों के बीच सांसें।” विद्रोही की कविताएं निश्चित तौर पर प्रतिरोध की क्षमता को चौगुनी कर देती
हैं। रमाशंकर यादव का ‘विद्रोही’ बनना
एक प्रक्रिया थी। उनके जीवन-शैली एवं स्वभाव के अनुरूप उन्हें यह तखल्लुस दिया गया
जिसे उन्होंने ‘जीते
जी’ साकार किया। विद्रोही
जी कबीर, नागार्जुन, धूमिल एवं अदम की परंपरा की अगली कड़ी हैं... बेसक उन्हें हिंदी जगत में
(जे. एन. यू. परिसर को छोड़कर) वह ओहदा नहीं मिला जो मिलना चाहिए था।
बड़ी कविता वही होती हैं जो कम
से कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कह जाय, इस संदर्भ में विद्रोही की कविताएँ उल्लेखनीय है। वह एक सुलझे हुए कवि
हैं। उन्हें कविता की गहरी समझ है। उनके द्वारा सामान्य तरीके से कही गई बात भी
गंभीर होती है। जब वे कहते हैं- “मैं अहीर हूँ ये दुनिया मेरी भैंस है/मैं
उसे दूह रहा हूँ / और कुछ लोग उसे कुदा रहे
हैं/ ये कौन लोग हैं जो कुदा रहे हैं/ आपको पता है? क्यों कुदा
रहे हैं/ ये भी पता है?/ लेकिन इस बात का पता न आपको है, न हमको है, न उनको है...कि इस कुदाने का परिणाम
क्या होगा? हाँ इतना तो पता है कि नुकसान हर हालत में हमारा
ही होगा/ क्योंकि भैंस भी हमारी है, दुनिया भी हमारी है।” ‘यह दुनिया मेरी भैंस है’ कहकर विद्रोही चुप नहीं
होते। उनकी यह चिंता निजी नहीं है। विद्रोही सामान्य जीवन जी रहे किसानों, मजदूरों, दलित, स्त्री, आदिवासी जनता के प्रतिनिधि हैं।
रमाशंकर विद्रोही का जाना
हिंदी-जगत के लिए बड़ी क्षति है। प्रगतिशील विचारधारा के जीवट कवि विद्रोही अपनी
रचनात्मकता एवं त्याग के कारण हमेशा-हमेशा याद किए जाते रहेंगे...अपनी कविताओं के
लिए, अपने तेवर के लिए, अपने अनूठे अंदाज के लिए।
(डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, 11 दिसंबर, 2016 को प्रकाशित)
@ प्रदीप त्रिपाठी
Sunday, 4 December 2016
भीष्म साहनी की रचना-दृष्टि
रॉल
फॉक्स का एक कथन है- “साहित्य में जीवन के विषय में लेखक
के राय की दरकार नहीं, वहाँ जीवन की तस्वीर चाहिए। जीवन
की यह तस्वीर स्वयं लेखक की दृष्टि को स्पष्ट कर देती है।” भीष्म साहनी की रचना-दृष्टि के संदर्भ में यह उद्धरण बेहद महत्वपूर्ण एवं सटीक
है। वास्तव में तमाम आपाधापी एवं उठापटक के युग में साहनी जी की रचना-दृष्टि
बिल्कुल अलग थी। उपन्यास ‘तमस’ कहानी ‘चीफ की दावत’ और नाटक ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ जैसी कालजयी रचनाएँ इस बात की मुकम्मल
गवाह हैं। भीष्म साहनी ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने स्वतंत्रता-पूर्व एवं
स्वातंत्र्योत्तर काल के बदलते हुए जीवन की तस्वीर को बड़े ही करीब से देखा है।
उनकी लेखकीय संवेदना का मुख्य आधार जनता की पीड़ा है। जीवन के छोटे से छोटे प्रसंगों के माध्यम से
बड़ी बात कह देना भीष्म साहनी की अपनी ताकत है। वास्तव में ‘चीफ की दावत’ कहानी इस बात की मिसाल है- “अब घर का फालतू सामान आलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा।
तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या
होगा?” कहानी का बेहद छोटा सा
प्रसंग रचना के पूरे मर्म को स्पष्ट कर देता है। शामनाथ के लिए अपनी निरक्षर और
बूढ़ी माँ ही एक समस्या हो जाती है जैसे कि घर के अन्य फालतू सामान। शामनाथ अपनी माँ को इस घर से उस घर में
कूड़े की तरह छिपाता फिरता है और माँ अपने बेटे की खुशी एवं हित को ध्यान में रखते
हुए कुछ भी करने को तैयार हो जाती है। वास्तव में यह कहानी स्वार्थपरता, संवेदनहीनता, गहरे विसंगतिबोध एवं
विडंबना की कहानी है।
भीष्म जी को अपने समय एवं समाज का गहरा
युगबोध है। उन्होंने अपनी रचनाओं में निम्न मध्यवर्गीय जनमानस की बेबसी एवं उनकी
मनः स्थितियों का यथार्थ अंकन किया है। वह एक प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस संदर्भ में
वे स्वयं कहते हैं- “लेखक का संवेदन अपने समय के यथार्थ
को महसूस करना और आँकना है। उसके अंतर्द्वंद्व और उसके अंतर्विरोधों के प्रति सचेत
होना है। इसी दृष्टि से उसकी पकड़ समाज के भीतर चलने वाले संघर्ष पर ज्यादा मजबूत
होती है और परिवर्तन की दिशा का उसे भास होने लगता है। इसी के बल पर वह राजनीति के
आगे होता है, पीछे नहीं। वह सामाजिक जीवन के ठोस
यथार्थ से जुड़ा होने पर ज्यादा दूर तक न भी हो, कुछ तक तो जरूर
ही देख सकता है।” (मेरे साक्षात्कार: भीष्म साहनी, पृष्ठ- 67)
भीष्म जी का मानना है कि विचारधारा लेखक
को तभी निर्दिष्ट कर सकती है, जब वह लेखक के संवेदन
का, उसके रचनात्मक व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाय। यह सच है कि उन्होंने अपनी
रचनाओं में कभी भी विचारधारा को हावी नहीं होने दिया हाँ, विचारधारा से जुड़ना अथवा प्रतिबद्ध होना वह एक रचनाकार के लिए सकारात्मक मानते
हैं। इस संदर्भ में उनका साफ मंतव्य है- “लेखक अपने परिवेश से किसी विचारधारा के नाते नहीं जुड़ता। विचारधारा उसे दृष्टि
देती है,
वह उसे समाज को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने समझने
में सहायक होती है। विचार कोई सांचा नहीं जिसमें रचना ढाली जाए। विचारधारा का रचना में योगदान वास्तविकता और यथार्थ से टकराकर होता है। वामपंथी विचारधारा ने निश्चय ही हमारे दृष्टि-क्षेत्र के साथ एक नया आयाम
जोड़ा। वह अपहृत जनता के विशाल समुदाय को हमारे दृष्टि-क्षेत्र में ले आयी, जिससे हम सामाजिक गतिविधि को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख पाए। इस तरह
विचारधारा लेखक को दृष्टि देती है, पर विचारधारा
जीवन का पर्याय नहीं होती। लेखक मूलतः जीवन से ही जुड़ता है। उसी में लक्षित होने
वाली विसंगतियाँ, विडंबनाएँ, अंतर्विरोध उसकी रचनाओं के विषय बनते हैं, लेखक का सरोकार
जीवन से होता है, और सच पूछे तो जीवन की कसौटी पर ही
सभी विचारधाराओं और व्यवस्थाओं का खरापन भी परखा और आँका जाता है। उसी भांति जीवन
की कसौटी पर ही किसी लेखक की रचनाएँ भी परखी और आँकी जाती हैं। कहाँ तक उसमें जीवन
की सच्चाई की झलक मिलती है, कहाँ तक मानव हृदय का स्पंदन, उसकी छटपटाहट उसके हर्ष-विशाद, उसकी
आकांक्षाएँ व्यक्त हो पाती हैं, उसी में उनकी सार्थकता
भी निहित होती है।” (आधार-चयन: कहानियाँ- भीष्म साहनी, पुस्तक की भूमिका से) विचारधारा के
सवाल पर भीष्म जी की दृष्टि बिल्कुल साफ थी- “जिस विचारधारा में मेरा यकीन है, वह मेरी जीवन-दृष्टि को प्रभावित करेगी और मेरी रचनाएँ भी
मेरी जीवन-दृष्टि के अनुरूप होगी। पर कोई भी लेखक मात्र विचारधारा के बल पर लिखता
हो, ऐसा नहीं है। विचारधारा से प्रेरित होते हुए भी वह
विचारधारा से चिपटा नहीं होता। वह विचारधारा को त्याग भी सकता है।” (भीष्म साहनी
की आत्मकथा, पृ. 265) भीष्म साहनी मूलतः प्रगतिशील
विचारधारा से प्रतिबद्ध थे। उनका मानना था कि प्रगतिशीलता कोई चौखटा नहीं, जिसमें कि आप चीजों को फिट कर दें। प्रगतिशीलता कला विरोधी या व्यक्ति
स्वातंत्र्य विरोधी भी नहीं होती मगर वह नकारात्मक भी नहीं होती। उनकी नजर में
प्रगतिशीलता एक व्यापक और सामाजिक सोच है। (भीष्म साहनी की आत्मकथा, पृ. 250) भीष्म साहनी ऐसे लेखक थे जिन्होंने अपने ऊपर कभी भी
विचारधारा को हावी नहीं होने दिया। वह ऐसी राजनीति या विचारधारा के पक्षधर नहीं थे
जिसका साहित्य के शाश्वत मूल्यों से कोई मेल न हो। साहित्यकार का क्षेत्र है
साहित्य, राजनीति नहीं। ऐसी राजनीति तो हरगिज
नहीं जो उसे संकीर्णता और कट्टरता की ओर ले जाय।
भीष्म साहनी की रचनाएँ जीवन के यथार्थ
से गहरे रूप में संपृक्त हैं। वे सदैव मानवीय मूल्यों के हिमायती रहे। साहनी जी ने
जीवन में हमेशा धर्मनिरपेक्षता को ही महत्व दिया। सांप्रदायिकता, धार्मिक-पाखंड जैसी चीजों को वह समाज के लिए घातक मानते थे, उन्होंने जीवन को जैसा जिया, देखा, महसूस किया उसे अभिव्यक्ति दी। भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’
अपने दौर का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उन्होंने विभाजन के दर्द
को इस उपन्यास में बहुत ही साफ़गोई के साथ व्यक्त किया है। वे लिखते हैं- “क्या बात करते हो बाबूजी, अब यह ख़याल ही दिमाग
से निकाल दो। अब हिंदुओं के मुहल्ले में न तो कोई मुसलमान रहेगा और न ही मुसलमानों
के मुहल्ले में कोई हिंदू। इसे पत्थर की लकीर समझो। पाकिस्तान बने या न बने, अब मुहल्ले अलग-अलग होंगे साफ बात है।” निश्चित तौर
भीष्म जी ने अपने इस उपन्यास में हिंदू व मुस्लिम रिश्ते को संवेदना के धरातल पर
समझने की कोशिश की है। उन्होंने अपनी रचनाओं में व्यक्ति से ज्यादा परिस्थितियों
को महत्व दिया है। ‘अमृत सर आ गया है’ या ‘मुझे मेरे घर छोड़ आओ’
कहानी इसका मुकम्मल उदाहरण है।
भीष्म साहनी व्यवस्था परिवर्तन पर ज़ोर
देते हैं। वे अपनी रचनाओं में हमेशा सवाल उठाते हैं। “ठेकेदार हर मजदूर के भाग्य का देवता होता है। जो उसकी दया बनी रहे तो मजदूर के
हर मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। पर जो देवता के तेवर बदल जाएँ तो अनहोनी भी होकर रहती
है।”
‘गंगो का जाया’ कहानी का यह
प्रसंग बेहद मार्मिक है। भीष्म जी यहाँ तत्कालीन सत्ता व्यवस्था पर तंज कसते हैं।
स्वाधीनता के बाद संयुक्त परिवारों का विघटन, आर्थिक बदहाली, देश-विभाजन, बेरोजगारी, संत्रास, कुंठा, भ्रष्टाचार एवं अवसरवादिता, मोहभंग जैसी
विसंगतियाँ तेजी से बढ़ने लगी थी। ऐसे में भीष्म साहनी अपनी रचनाओं में हर प्रकार
के छद्म,
ढोंग, सामाजिक विसंगतियों और
परिवेशगत अंतर्विरोधों की पड़ताल करते हुए एक बेहतर समाज रचना के लिए लेखक की
सक्रिय भूमिका और साझेदारी की बात करते दिखाई देते हैं। वे मानते थे कि एक लेखक की
प्रतिबद्धता अपने जीवन से तथा अपनी कला से होती है। उसे इसके प्रति हमेशा सचेत एवं
ईमानदार रहना चाहिए। भीष्म जी का मानना है कि –“जीवन की
वास्तविकता की उपेक्षा न कर लेखक उसे जितना नजदीक से देखेगा, हमारे साहित्य में उतनी ही अधिक सच्चाई और व्यापकता आएगी और इसी के फलस्वरूप
साहित्य में अधिक विविधता भी आ पाएगी।” (संपादकीय, नई कहानियाँ, अक्टूबर, 1965,
पृ.- 127) भीष्म जी अपनी रचनाशीलता में इन सब चीजों का बेहद
ख़याल रखते हैं। ‘अमृत सर आ गया है’, ‘वाङ्ग्चू’, ‘खून का रिश्ता’, ‘ओ हरामजादे’, ‘चीफ की दावत’ कहानियों के अलावा उनके उपन्यास ‘कुंतों’, ‘बसंती’, ‘तमस’, कड़ियाँ, ‘मैय्यादास की माड़ी’ एवं नाटक ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘हानूश’ आदि जितनी भी रचनाएँ हैं उनमें विषय की
वैविध्यता है। इनकी रचनाओं की पृष्ठभूमि में ऐसी सहज मानवीय यथार्थवादी
संवेदना है जो बगैर किसी कलात्मकता के पाठकों को अभिभूत कर देती है। उन्होंने एक जगह रचना-प्रक्रिया पर चर्चा करते हुए लिखा है- “प्रत्येक लेखक का संवेदन एक जैसा नहीं होता, एक ही जैसे अनुभव रहते हुए किसी में अंकुर फूटता है किसी में नहीं, यहाँ तक कि यदि दो लेखक को एक ही अनुभव से गुजरना पड़े और दोनों उस अनुभव
को लेकर कहानियाँ लिखें, तो दोनों की कहानियाँ भी अलग-अलग
तरह की होंगी। लेखक के संवेदन को उसके संस्कार, उसका परिवेश, उसके अपने अनुभव, उसका पठन-पाठन उसे जीवन-दृष्टि
देते हैं, उसकी साहित्यिक रुचियाँ आदि सभी प्रभावित करते
हैं। ” (आत्मकथा: भीष्म साहनी पृ.-210)
भीष्म जी का मानना था कि सांप्रदायिकता
जैसी समस्या का निपटारा हिंसा के बल पर नहीं किया जा सकता। उनका मंतव्य है- “भारत
जैसे बहुभाषी, बहुजातीय,
बहुधर्मी किसी भी देश में किसी भी जातीय सवाल का हल हिंसात्मक दबाव द्वारा नहीं
खोजा जा सकता। दंगों द्वारा कभी कोई जाति तो कभी कोई, अपना
शक्ति प्रदर्शन करे और यह समझे कि इस आधार पर समाज में संतुलन आ जाएगा, इस प्रकार का तर्क बड़ा गलत और खतरनाक है। शक्ति प्रदर्शन द्वारा हम इस
समस्या का समाधान नहीं कर सकते, न ही राजनैतिक स्तर पर किए
जाने वाले समझौतों द्वारा। निश्चय ही धर्म को राजनीति से अलग करके ही इसका कोई
समाधान संभव होगा। सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देते हुए निजी धार्मिक
मान्यताओं को उसके निजी कर्तव्यों से अलग करते हुए इस नियम का कड़ाई से पालन करते
हुए हम कोई समाधान ढूंढ़ सकते हैं। यह बराबरी का अधिकार सांस्कृतिक स्तर पर और
ज्यादा महत्वपूर्ण है। सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा देना,
साझी सांस्कृतिक विरासत को मान्यता देना, सांस्कृतिक
आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करना, संस्कृति के क्षेत्र में
उदारता और आदर भाव इस तरह से हम कुछ हद तक सांप्रदायिकता के जहर को फैलने से रोक
सकते हैं।”
भीष्म साहनी यथार्थवादी परंपरा के सिद्धहस्त रचनाकार हैं। उनके लेखन में
जिंदगी की पकड़ अचूक है। यही कारण है कि इनकी रचनाओं के पात्रों का वास्तविक जीवन
से गहरा मेल बैठता है। भीष्म जी रचना दृष्टि का फ़लक बहुत व्यापक है। वे रचना के संवेदना पक्ष पर ज़ोर
देते हैं। उनका मानना है कि- “लेखक का संवेदन एक तरह की जमीन होती है। लेखक मात्र
एक घटना से जुड़ा न रहकर उस घटना को पैदा करने वाले कारणों, शक्तियों, तत्त्वों को भी अपनी दृष्टि
क्षेत्र में ले आता है, उनका भी भावना एवं रचनात्मक तर्क के
आधार पर अन्वेषण करता है। ” (मेरे साक्षात्कार: भीष्म साहनी,
पृष्ठ- 14) वे मानते हैं कि मानवीय संवेदना को कला का नैसर्गिक गुण है, इसके बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। भीष्म साहनी जी अपनी रचनाशीलता में इन बातों का
बेहद ख़याल रखते हैं।
भीष्म साहनी की रचना का मुख्य आधार जीवन
की जटिलताएँ हैं। वे किसी भी रचना की निर्मिति में लेखक के व्यक्तित्व को महत्व
देते हैं। उनका मानना है कि लेखक के लिए जीवन ही सर्वोपरि है। साहित्य-रचना सपाट
प्रक्रिया नहीं होती। अभिव्यक्ति कि प्रक्रिया में लेखक का पूरा व्यक्तित्व भाग लेता
है, उसका मस्तिष्क, उसकी
कल्पना, उसका संवेदन या यूं कहें उसका विचार, संस्कार, पूर्वाग्रह, उसकी
मानसिकता, भावनाएँ, उसकी जीवन-दृष्टि
सभी कुछ। निश्चित रूप से भीष्म जी अपने दौर के महत्वपूर्ण लेखक हैं जिन्होंने अपने
समय एवं समाज के जीवन-मूल्यों, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थितियों का बड़ी बेबाकी एवं साफ़गोई के साथ पेश किया
है। उनकी भाषा जनता की भाषा है। भीष्म अपनी जमीन से जुड़े ऐसे हस्ताक्षर हैं जो
शिल्प की बुनावट और भावुकता के बल पर कभी खड़ा होने की कोशिश नहीं करते। वे हमेशा
सामान्य जीवन से उठाए हुए पात्रों के द्वंद्व, क्रियाकलाप एवं सच्चाईयों का अन्वेषण करते नजर
आते हैं। भीष्म जी ने अपनी रचनाओं में स्त्री-अस्मिता के सवालों को बड़ी गंभीरता के
साथ उठाया है। ‘बसंती’, ‘कुंतों’, ‘माधवी’ या ‘गंगो का जाया’ जैसी रचनाएँ इस बात की सशक्त गवाह हैं।
भीष्म साहनी की रचना-दृष्टि अत्यंत व्यापक है। अनुभूति की प्रामाणिकता, व्यापक दृष्टिकोण एवं गहरा इतिहास बोध भीष्म साहनी की रचनाओं को उत्कृष्ट बना देता है। सच्चे अर्थों में भीष्म जी स्वतंत्र भारत के जटिल यथार्थ और द्वन्द्वों से घिरे समाज के जीवन-व्यापार और उसमें निर्मित हो रहे किरदारों को अत्यंत सहजता से पेश करने वाले रचनाकार हैं। उनकी रचनाशीलता की सबसे प्रमुख विशेषता है कि उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए वही भूमि चुनी जिसमें वे जी रहे थे। यही उनके ‘जैनुइन’ होने का रहस्य है। यह स्पष्ट है कि भीष्म साहनी उन गिने-चुने लेखकों में शामिल हैं जिनकी रचनाएँ न सिर्फ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं अपितु हमारे समय एवं समाज का एक ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक दस्तावेज़ है।
भीष्म साहनी की रचना-दृष्टि अत्यंत व्यापक है। अनुभूति की प्रामाणिकता, व्यापक दृष्टिकोण एवं गहरा इतिहास बोध भीष्म साहनी की रचनाओं को उत्कृष्ट बना देता है। सच्चे अर्थों में भीष्म जी स्वतंत्र भारत के जटिल यथार्थ और द्वन्द्वों से घिरे समाज के जीवन-व्यापार और उसमें निर्मित हो रहे किरदारों को अत्यंत सहजता से पेश करने वाले रचनाकार हैं। उनकी रचनाशीलता की सबसे प्रमुख विशेषता है कि उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए वही भूमि चुनी जिसमें वे जी रहे थे। यही उनके ‘जैनुइन’ होने का रहस्य है। यह स्पष्ट है कि भीष्म साहनी उन गिने-चुने लेखकों में शामिल हैं जिनकी रचनाएँ न सिर्फ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं अपितु हमारे समय एवं समाज का एक ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक दस्तावेज़ है।
सहायक ग्रंथ सूची-
1.
दुबे, अभय कुमार (संपा.). (1993). सांप्रदायिकता के स्त्रोत.
दिल्ली: विनय प्रकाशन.
2.
साहनी, भीष्म. (2009). प्रतिनिधि कहानियाँ. नई दिल्ली: राजकमल
प्रकाशन.
3.
साहनी, भीष्म. (1999). तमस. नई दिल्ली : राजकमल
प्रकाशन.
4.
कमलेश्वर. (2015). नई कहानी की भूमिका. नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन.
5.
सिंह, नामवर. (2012). कहानी
नई कहानी. इलाहाबाद : लोकभारती
प्रकाशन.
6.
यशपाल. (2010). मार्क्सवाद.
नई दिल्ली: लोकभारती प्रकाशन.
7.
साहनी, भीष्म. (1998). झरोखे.
नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
लेखकीय परिचय-
@ प्रदीप त्रिपाठी
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
tripathiexpress@gmail.com
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