Saturday, 6 December 2014

चिल्लर नहीं है.... :(कहानी): प्रदीप त्रिपाठी


          राजू अक्सर घर के सामानों की लगभग सारी ख़रीदारी मार्केट के किसी एक ही दुकान से किया करता था। नाम था उनका मुरारी बाबू। यह मार्केट के बड़े धन्नासेठों में से एक थे। शायद इसी कारण लोग इन्हें सेठ जी भी कहा करते थे। एक दिन की बात है। दैनंदिन की भांति राजू आज भी मार्केट करने निकल गए। मुरारी बाबू को ख़रीदारी के सामानों की लिस्ट पकड़ाते हुए बोले - अरे, सेठजी जरा ये सामान पैक कर देना, और हाँ, ध्यान रहे आज थोड़ा जल्दी में भी हूँ। लिस्ट के मुताबिक मुरारी बाबू ने राजू का ख़याल रखते हुए सामान पैक कर दिए। थोड़ा जंभाई लेते हुए, हां सेठ जी कितने पैसे हुए? राजू ने पूछा। ज्यादा नहीं, बस मात्र तीन सौ पैतालीस रूपए। जेब से तीन सौ पचास रूपए निकालकर पकड़ाते हुए राजू ने कहा ये रख लो सेठजी। मुरारी बाबू 5 रुपए वापस करने के बजाय “चिल्लर नहीं है आज” ऐसा कहते हुए ये लो राजू बच्चों के लिए 5 रूपए के चॉकलेट ले जाओ आज, वही गाने की पुरानी राग अलापने  लगे जो अक्सर खुश होकर पर अलापते थे- “सखी सइयाँ त खूबै कमात है, मंहगाई डाइन खाय जात है।” राजू भी चॉकलेट पॉकेट में रखते हुए घर की ओर चला गया।
            लगभग दो-तीन दिन के बाद राजू फिर घर के सामान लेने मुरारी बाबू के यहाँ गया। सच्चाई जो भी रही हो आज भी मुरारी बाबू फुटकर पैसे नहीं है ऐसा कहते हुए राजू को कुछ चॉकलेट बिस्किट पकड़ाकर बिदा कर दिए। राजू अब धीरे-धीरे मुरारी बाबू के इस हरकत से तंग आ चुका था। खैर! राजू को जब भी घर के सामान लाने के ऑर्डर मिलते वह मुरारी बाबू के यहाँ से ही लाता। मुरारी बाबू का फुटकर नहीं है का यह जुमला लगभग सभी ग्राहकों के साथ था। बात जो भी हो राजू अब मुरारी बाबू द्वारा दिए जा रहे चॉकलेट और बिस्किट जैसे सामानों को खर्च न करने के बजाय उसे इकट्ठा करने लगा। धीरे-धीरे अब तक राजू के पास लगभग मुरारी बाबू द्वारा दिए गए 5 रुपए वाले 19 पैकेट बिस्किट और तकरीबन 100 चॉकलेट इकट्ठा हो गए थे।
            रोज़मर्रा की भांति राजू, आज भी मुरारी बाबू को घर के सामानों की लिस्ट पकड़ाते हुए बड़े विनम्र भाव से बोला- सेठ जी इसमें कुछ सामानों के नाम छूट गए हैं उसे मैं मुंह से ही बताय देता हूँ। थोड़ी ही देर में मुरारी बाबू ने राजू को सामान पैक हो गया है, ज़ोर की आवाज लगाई। शायद इसलिए कि राजू किसी से बात करते-करते थोड़ी दूर चला गया था। राजू थोड़ा करीब आकर हाँ, मुरारी बाबू कितने पैसे हुए? पूछा। बक पगले आज 125 ही तो हुए हैं मुरारी बाबू ने राजू की तरफ मुंह करके अपना वही पेट सांग...गुनगुनाते हुए थोड़ा और पास आ गए।
            राजू अच्छा बोलते हुए पहले से थोड़ा और गंभीर होकर मुरारी बाबू द्वारा अब तक दिए गए 19 बिस्किट के पैकेट और पैंतीस चॉकलेट गिनकर पकड़ाते हुए बोला- ये लो सेठ जी 125 रुपए के पूरे हैं। हाँ, ठीक से गिन लेना पूरे 125 के तो हैं न, मैं थोड़ा जल्दी में हूँ। चॉकलेट और बिस्किट के पैकेट देखकर मुरारी बाबू थोड़ा सकपकाए पर...। पर वे जल्द ही अपने कारनामों पर खिसियाते हुए नॉर्मल होकर बोले लाओ ! कोई बात नहीं... बिना गिने ही बिस्किट और चॉकलेट वापस रख लिए। राजू भी घर पहुँचकर मुरारी बाबू के इस कारनामें को लोगों से साझा करते हुए ठहाके के साथ मुरारी बाबू जो गाना गाते थे गाने लगा- “सखी सइयाँ त खूबै कमात है, मंहगाई डाइन खाय जात है।”           

लेखकीय परिचय- 


                                     प्रदीप त्रिपाठी
जन्म-                             7 जुलाई, 1992    
शैक्षणिक योग्यता- एम.ए. हिन्दी(तुलनात्मक सा.), एम.फिल. हिन्दी (तु.सा.), लोक-साहित्य, एवं कविता-लेखन में विशेष रुचि  
संप्रति-   साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, पीएच.डी. में शोधरत
प्रकाशित रचनाएँ- विभिन्न चर्चित पत्र-पत्रिकाओं (दस्तावेज़, परिकथा, अंतिम जन, वर्तमान साहित्य, अलाव आदि) में शोध-आलेख एवं कविताएं प्रकाशित और 10 से  अधिक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तरीय सेमिनारों में प्रपत्र-वाचन एवं  सहभागिता ।
संपर्क-  साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
स्थायी पता-        महेशपुर, आजमगढ़, उ.प्र., 276137
संपर्क-सूत्र-           08928110451
Email-             tripathiexpress@gmail.com
लेखकीय वक्तव्य- अनुभूतियों को शब्दबद्ध करना ही मेरी रचना का ध्येय है।   

Tuesday, 2 December 2014

दलित कविता: अस्मिता और प्रतिरोध की संस्कृति

समकालीन कविता ने अपना एक विशिष्ट मुकाम  हासिल किया है जिसे देख कर यह कहा जा सकता है कि भारतीय परिदृश्य पर दलित कविता ने  अपनी उपस्थिति दर्ज करके सामाजिक संवेदना में बदलाव की प्रक्रिया तेज की है। दलित  कविता के इस स्वरूप ने निश्चित ही भारतीय मानस की सोच को बदला है। दलित कविता आनन्द या रसास्वादन की चीज नहीं है। बल्कि कविता के  माध्यम से मानवीय पक्षों को उजागर करते हुए मनुष्यता के सरोकारों और मनुष्यता के  पक्ष में खड़ा होना है। मनुष्य और प्रकृति, भाषा और संवेदना का गहरा रिश्ता है, जिसे दलित कविता ने अपने  गहरे सरोकारों के साथ जोडा है। दलित कविता ने अपनी एक विकास यात्रा तय की है, जिसमें वैचारिकता, जीवन-संघर्ष, विद्रोह ,आक्रोश, नकार, प्रेम, सांस्कृतिक छदम, राजनीतिक प्रपंच,वर्ण- विद्वेष, जाति के सवाल ,साहित्यिक छल आदि विषय बार बार दस्तक देते  हैं, जो दलित कविता की विकास यात्रा के विभिन्न पड़ाव से होकर गुजरते  हैं। दलित कवि के मूल में मनुष्य होता है, तो वह उत्पीड़न और असमानता के  प्रति अपना विरोध दर्ज करेगा ही। जिसमें आक्रोश आना स्वाभाविक परिणिति है। जो दलित  कवि की अभिव्यक्ति को यथार्थ के निकट ले जाती है। उसके अपने अंतर्विरोध भी हैं, जो कविता में  छिपते नहीं हैं, बल्कि स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होते हैं। दलित कविता का  जो प्रभाव और उसकी उत्पत्ति है, जो आज भी जीवन पर लगातार आक्रमण कर रही है। इसी लिए कहा  जाता है कि दलित कविता मानवीय मूल्यों और मनुष्य की अस्मिता के साथ खडी है। जिस विषमतामूलक समाज में एक दलित संघर्षरत हैं, वहां मनुष्य की  मनुष्यता की बात करना अकल्पनीय लगता है। इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय  पक्ष में परिवर्तित करना दलित कविता की आंतरिक अनुभूति है, जिसे अभिव्यक्त  करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है। भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक्ष दलित को  उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठत्व पाता है। लेकिन एक  दलित के लिए यह श्रेष्ठत्व दासता और गुलामी का प्रतीक है। जिसके लिए हर पल दलित को  अपने स्वकी ही नहीं समूचे दलित समाज की पीड़ादायक स्थितियों से  गुजरना पड़ता है।  हिन्दी आलोचक कविता को जिस रूप में  भी ग्रहण करें और साहित्यिक मापदंडों से उसकी व्याख्या करें, लेकिन दलित जीवन  की त्रासद स्थितियां उसे संस्पर्श किये बगैर ही निकल जाती हैं। इसी लिए वह आलोचक  अपनी बौद्धिकता के छदम में दलित कविता पर कुछ ऎसे आरोपण करता है कि दलित कविता में  भटकाव की गुंजाईश बनने की स्थितियां   उत्पन्न होने की संभावनायें दिखाई देने लगती हैं। इसी लिए दलित कविता को  डा.अम्बेडकर के जीवन-दर्शन, अतीत की भयावहता और बुद्ध के मानवीय दर्शन को हर पल सामने  रखने की जरूरत पडती है, जिसके बगैर दलित कविता का सामाजिक पक्ष कमजोर पडने लगता है। समाज में रचा- बसा विद्वेषरूप बदलबदल कर झांसा देता है। दलित कवि के सामने ऎसी भयावह  स्थितियां निर्मित करने के अनेक प्रमाण हर रोज सामने आते हैं, जिनके   बीच अपना रास्ता ढूंढना आसान नहीं होता है। सभ्यता  ,संस्कृति के घिनौने सड़यंत्र लुभावने शब्दों से भरमाने का काम करते हैं। जहां  नैतिकता, अनैतिकता और जीवन मूल्यों के बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है,फिर भी नाउम्मीदी  नहीं है। एक दलित कवि की यही कोशिश होती है कि इस भयावह त्रासदी से मनुष्य स्वतंत्र  होकर प्रेम और भाईचारे की ओर कदम बढाये, जिसका अभाव हजारों साल से साहित्य और समाज में दिखाई देता रहा  है।        दलित कविता निजता से ज्यादा सामाजिकता को महत्ता देती है। इसी लिए दलित  कविता का समूचा संघर्ष सामाजिकता के लिए है। दलित कविता का सामाजिक यथार्थ ,जीवन संघर्ष और  उसकी चेतना की आंच पर तपकर पारम्परिक मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह और नकार के रूप  में अभिव्यक्त होता है। यही उसका केन्द्रीय भाव भी है, जो आक्रोश के रूप  में दिखाई देता है। क्योंकि दलित कविता की निजता जब सामाजिकता में परिवर्तित होती  है, तो उसके आंतरिक और बाहय द्वंद्व उसे संश्लिष्टता प्रदान करते हैं। यहां यह  कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिन्दी आलोचक अपने इर्द-गिर्द रचेबसे संस्कारिक  मापदंडो, जिसे वह सौन्दर्यबोध कहता है, से इतर देखने का अभ्यस्त नहीं है। इसी लिए उसे दलित कविता  कभी अपरिपक्व लगती है, तो कभी सपाट बयानी, तो कभी बचकानी भी।  दलित कविता की अंत:धारा और उसकी वस्तुनिष्ठता को पकड़ने की वह कोशिश नहीं  करना चाहता है। यह कार्य उसे उबाऊ लगता है। इसी लिए वह दलित कविता से टकराने के  बजाए बचकर निकल जाने में ही अपनी पूरी शक्ति लगा देता है। दलित चेतना दलित कविता को एक अलग  और विशिष्ट आयाम देती है। यह चेतना उसे डा. अम्बेडकर जीवनदर्शन और जीवन  संघर्ष  से मिली है। यह एक मानसिक  प्रक्रिया है जो इर्द-गिर्द फैले सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक छदमों से  सावधान करती है। यह चेतना संघर्षरत दलित जीवन के उस अंधेरे से बाहर आने की चेतना  है जो हजारों साल से दलित को मनुष्य होने से दूर करते रहने में ही अपनी श्रेष्ठता  मानता रहा है। इसी लिए एक दलित कवि की चेतना और एक तथाकथित उच्चवर्णीय कवि की चेतना  में गहरा अंतर दिखाई देता है। सामाजिक जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक घटना से  मनुष्य प्रभावित होता है। वहीं से उसके संस्कार जन्म लेते हैं और उसकी वैचारिकता, दार्शनिकता ,सामाजिकता, साहित्यिक समझ  प्रभावित होती हैं। कोई भी व्यक्ति अपने परिवेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता  है। इसी लिए कवि की चेतना सामाजिक चेतना का ही प्रतिबिम्ब बन कर उभरती है। जो उसकी  कविताओं में मूर्त रूप में प्रकट होती है। इसी लिए दलित जीवन पर लिखी गयी रचनाएं  जब एक दलित लिखता है और एक गैर दलित लिखता है तो दोनों की सामाजिक चेतना  की भिन्नता साफसाफ दिखाई देती है। जिसे अनदेखा करना हिन्दी आलोचक की  विवशता है। यह जरूरी हो जाता है कि दलित कविता को पढते समय दलितजीवन की उन  विसंगतियों, प्रताडनाओं, भेदभाव, असमानताओं को ध्यान में रखा जाये, तभी दलित कविता के  साथ साधारणीकरण की स्थिति उत्पन्न होगी। हिन्दी के कुछ विद्वानों, आलोचकों को लगता है कि दलित का जीवन बदल चुका है। लेकिन  दलित कवि और साहित्यकार अभी भी अतीत का रोना रो रहे हैं और उनकी अभिव्यक्ति आज भी  वहीं फुले, अम्बेडकर, पेरियार के समय में ही अटकी हुई है। यह एक अजीब तरह का आरोप  है। आज भी दलित उसी पुरातन पंथी जीवन को भोग रहा है जो अतीत ने उसे दिया था। हां  चन्द लोग जो गांव से निकल शहरों और महानगरों में आये ,कुछ अच्छी  नौकरियां पाकर उस स्थिति से बाहर निकल आये हैं, शायद उन्हीं चन्द  लोगों को देख कर विद्वानों ने अपनी राय बनाली है कि दलितों के जीवन में अंतर आ  चुका है। लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। महानगरों में रहने वालों की वास्तविक स्थिति वैसी  नहीं है जैसी दिखाई दे रही है। यदि स्थितियां बदली होती तो दलितों को अपनी  आईडेंटीटी छिपा कर महानगरों की आवासीय कालोनियों में क्यों रहना पडता। वे भी दूसरों  की तरह स्वाभिमान से जीते, लेकिन ऎसा नहीं हुआ। समाज उन्हें मान्यता देने के लिए आज भी  तैयार नहीं है। शहरों और महानगरों से बाहर ग्रामीण क्षेत्रों में दिन रात खेतों, खलिहानों, कारखानों में  पसीना बहाता दलित जब थका-मांदा घर लौटता है, तो उसके पास जो है  वह इतना कम है कि वह अपने पास क्या जोड़े और क्या घटाये, कि स्थिति में होता है। ऊपर से सामाजिक विद्वेष उसकी रही सही  उम्मीदों पर पानी फेर देता है। इसी लिए अभावग्रस्त जीवन से उपजी विकलताओं, जिजिविषायें दलित  कवि की चेतना को संघर्ष के लिए उत्प्रेरित करती हैं, जो उसकी कविता का  स्थायी भाव बनकर उभरता है। और दलित कविता में दलित जीवन और उसकी विवशतायें बार-बार  आती हैं। इसी लिए कवि का मैं हमबनकर अपनी व्यक्तिगत, निजी चेतना को  सामाजिक चेतना में बदल देता है। साथ ही मानवीय मूल्यों को गहन अनुभूति के साथ  शब्दों में ढालने की प्रवृत्ति भी उसकी पहचान बनती है। दलित कविता को मध्यकालीन संतों से  जोड़कर देखने की भी प्रवृति इधर दिखाई देती है। जिस पर गंभीर और तटस्थ विवेचना की  आवश्यकता है। संत काव्य की अध्यात्मिकता, सामाजिकता और उनके जीवन मूल्यों की  प्रासंगिकता के साथ डॉ॰ अंबेडकर के मुक्ति संघर्ष से उपजे साहित्य की अंत:चेतना  का विश्लेषण करते हुए ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। जो समकालीन सामाजिक संदर्भो  के लिए जरूरी लगता है, जिस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है। दलित कविता में आक्रोश, संघर्ष, नकार, विद्रोह, अतीत की स्थापित मान्यताओं से है। वर्तमान के छदम से  है, लेकिन मुख्य लक्ष्य जीवन में घृणा की जगह प्रेम, समता, बन्धुता, मानवीय मूल्यों का  संचार करना ही दलित कविता का लक्ष्य है।

Sunday, 30 November 2014

हिंदी और उर्दू का रिश्ता....

पूरे विश्व में हिन्दी और उर्दू संभवतः अकेली ऐसी भाषाएं हैं जिनके संज्ञा, सर्वनाम, क्रियापद और वाक्यरचना पूर्णतः समान होने के बावजूद उन्हें दो अलग-अलग भाषाएं माना जाता है.
कुछ लोग इसीलिए सद्भावनावश और कुछ अन्य दुर्भावनावश हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा की दो शैलियाँ मानते हैं और उनके बीच लिपिभेद को ही बुनियादी भेद समझते हैं क्योंकि हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है और उर्दू को फारसी और अरबी के मिश्रण से बनी लिपि में. जो लोग सद्भावनावश ऐसा कहते हैं, उनका उद्देश्य दोनों भाषाओं की साझी विरासत और परंपरा को रेखांकित करना और दोनों को एक-दूसरे के करीब लाना होता है, लेकिन जो लोग दुर्भावनावश ऐसा कहते हैं उनका लक्ष्य उर्दू को भी हिन्दी की एक शैली बताकर उसे हिन्दी के भीतर ही समेट लेना है.
स्वाभाविक रूप से उर्दूवाले इन दोनों ही तरह के लोगों को संदेह की नजर से देखते हैं और इसके पीछे हिन्दीवालों की विस्तारवादी साजिश की गंध सूंघते हैं. यही नहीं, उन्हें हिन्दी प्रदेश कहे जाने वाले विशाल क्षेत्र में बोली जाने वाली बोलियों और भाषाओं को भी हिन्दी का हिस्सा मान लेने पर भी आपत्ति है. अभी हाल ही में प्रसिद्ध उर्दू लेखक और आलोचक शम्सुर्रहमान फारूकी ने इस प्रवृत्ति को हिन्दी के वर्चस्ववाद का द्योतक बताते हुए हिन्दी-उर्दू संबंध पर भी इसकी छाया पड़ने की ओर इशारा किया था. उनके इस वक्तव्य ने एक बार फिर इन जुड़वां भाषाओं के आपसी रिश्तों को विमर्श के केंद्र में ला दिया है. दरअसल इन दो भाषाओं के बीच का रिश्ता केवल भाषा या साहित्य तक ही सीमित नहीं है, इसलिए इस पर बहसें अक्सर ठोस वैचारिकता और ऐतिहासिक एवं भाषावैज्ञानिक तथ्यों तथा तर्कों पर नहीं, राजनीतिक दृष्टिकोणजनित भावावेश में की जाती हैं. उर्दू-हिन्दी संबंध पिछली चार सदियों के दौरान विकसित हुआ है और इसी कालावधि में इन दोनों के बीच दूरी बढ़ती गई है. देश के विभाजन, पाकिस्तान की मांग के साथ उर्दू का जुड़ाव और विभाजन के बाद उसका पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा बनना भी भारत में हिन्दी के साथ उसके संबंध को प्रभावित करता रहा है. पाकिस्तान में तो हिन्दी का अस्तित्व ही नहीं है, इसलिए यह समस्या मुख्य रूप से भारत में रहने वाले हिन्दी और उर्दूभाषियों की ही है.
अमृतराय ने गहन शोध के आधार पर स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि सत्रहवीं सदी के अंत और अट्ठारहवीं सदी के आरंभ में ही रेख्ते या उर्दू या हिंदवी में से संस्कृत मूल के शब्दों को निकाल बाहर करने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी थी. इसलिए जब 1800 में अंग्रेजों ने कलकत्ते में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना करने के साथ ही हिन्दी और उर्दू को दो पृथक भाषाओं के रूप में अलग करके इस विभाजन की औपचारिक रूप से नींव डाली, तब तक लगभग एक सदी तक पृथकतावादी तत्व सक्रिय रह चुके थे. हालांकि आज भी रोजमर्रा के व्यवहार में बोलचाल के स्तर पर हिन्दी और उर्दू को एक-दूसरे से अलगाना बेहद मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव ही है, लेकिन उनके साहित्यिक रूप एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हो चुके हैं. विचार की भाषा के रूप में भी आज हिन्दी और उर्दू एक-दूसरे से नितांत भिन्न हैं.

फिराक गोरखपुरी जैसे शीर्षस्थ उर्दू कवि की भी यह मान्यता थी, और इस मामले में उनके विचार अमृतराय के काफी नजदीक पड़ते हैं, कि उर्दू ने स्थानीय बोली और संस्कृति से अपना दामन बचा कर रखा जिसके कारण उसकी कविता में भारत की मिट्टी की वैसी सोंधी महक नहीं आ पायी जैसी आनी चाहिए थी. इस कारण वह शहरी अभिजात वर्ग की साहित्यिक भाषा बनकर रह गई. यदि इस दृष्टि से देखें तो हिन्दी इससे मुक्त रही है. उसने अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी और खड़ीबोली, सबकी भाषिक और साहित्यिक संपदा को अपनाया. हालांकि जिसे आज हम हिन्दी कहते हैं, वह खड़ीबोली का ही परिष्कृत रूप है, लेकिन उसे हिन्दी प्रदेश की अन्य बोलियों और भाषाओं की साझा परंपरा और विरासत से परहेज नहीं, लेकिन इसी को शम्सुर्रहमान फारूकी हिन्दी का वर्चस्ववादी रुझान समझते हैं.
आज स्थिति यह है कि हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में सभी स्तरों पर कबीर, रैदास, मालिक मुहम्मद जायसी, सूरदास, तुलसीदास, रहीम, रसखान और विद्यापति जैसे कवियों को शामिल किया जाता है जो खड़ीबोली के नहीं बल्कि अवधी, ब्रज, मैथिली आदि भाषाओं के कवि हैं, लेकिन उर्दू के पाठ्यक्रम में इस विरासत को स्वीकार नहीं किया जाता. अमीर खुसरो को हिन्दी/उर्दू का पहला कवि तो माना जाता है लेकिन उनके बाद के विकास का इतिहास दोनों भाषाओं में अलग-अलग है.
विडम्बना यह है कि खड़ीबोली हिन्दी में भी उसी तरह की प्रवृत्ति ने जड़ जमा ली है जिसके कारण अठारहवीं सदी और उसके बाद के काल में उर्दू से संस्कृत और स्थानीय बोलियों के शब्दों को निकाला गया. हिन्दी में संस्कृत शब्दों को अनावश्यक ढंग से ठूंसने की परंपरा चल निकली है जिसके कारण भाषा और जनता के बीच दूरी लगातार बढ़ती जा रही है. एक दूसरा बदलाव यह हुआ है कि बहुत-सा उर्दू साहित्य देवनागरी लिपि में छप कर सामने आया है और हिन्दी पाठकों के बीच लोकप्रिय हुआ है. आज मीर, गालिब, इकबाल, फिराक, फैज, इंतजार हुसैन, अहमद फराज और फहमीदा रियाज को जितना हिन्दी के पाठक पढ़ रहे हैं, उतना शायद उन्हें उर्दू के पाठक भी न पढ़ रहे हों. नतीजा यह है कि एक ओर जहां हिन्दी और उर्दू के बीच तनावपूर्ण रिश्ते बरकारर हैं, वहीं दूसरी ओर वे अपने पाठकों के जरिये एक दूसरे के नजदीक भी आ रही हैं. हो सकता है कुछ लोग इसके पीछे भी हिन्दी का वर्चस्ववाद ढूंढ लें.



Saturday, 8 November 2014

दलित चिंतकों से डरते क्यों हैं मार्क्सवादी ?

दस्तावेज बताने की कोशिश करता है कि आरक्षण एक बुर्जुआजी षड़यंत्र है जिसके चलते भारत विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँच सका है! बार-बार इस तथ्य की अनदेखी क्यों की जाती है आरक्षण संघर्ष का एक रूप है और यह दलितों के संघर्ष का परिणाम है...
लेखक - विष्णु शर्मा

सर्वहारा प्रकाशन के दस्तावेज मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्तियांमें सार्थक बहस कम और आत्ममुग्ध घोषणा अधिक है. यह दलित आंदोलन को सीधे तौर पर दलित बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की अवसरवादी राजनीति घोषित कर उसके पीछे के सामाजिक कारणों को नकारती है. इस तरह यह उसी फतवेबाजीका शिकार हो जाती है, जिसके खिलाफ होने का दावा इस पुस्तिका के शुरू में है.
दलित बुद्धिजीवियों के लिए यह कहते हुए कि ये 'एक बार मुंह खोलते हैं तो चार फतवे जारी हो जाते हैंयह किताब खुद इतने फतवे जारी करती है कि तर्क कब कुतर्क और कुतर्क कब गूढ़ अर्थों वाली लाल बुझक्कड़ की पहेली बन जाते हैंसमझना कठिन हो जाता है. खुद को असलमार्क्सवादी होने की तमाम घोषणा के बावजूद दलित आंदोलन के सामाजिक कारकों को नज़रअंदाज़ कर दस्तावेज़ वैचारिक खोखलेपन का शानदार सबूत प्रस्तुत करता है. इससे आगे यह इस भूभाग के इतिहास को भी अपनी कल्पना के अनुसार रचनेकी कोशिश करता है, गोया इतिहास इस संगठन की व्यक्तिगत संपत्ति है कि जब मन करे अपने अनुसार इसकी व्याख्या कर दी जाये.
दलित बुद्धिजीवियों के दर्शन को यह किताब हास्यास्पद तौर पर बुर्जुआ दर्शन घोषित करती है, जिसका मतलब यह हो जाता है कि भारत के दलित एक तरह से नव उदयीमान पूंजीपति हैं जो भारतीय सामंतवाद के खिलाफ सारतःउसी तरह है जैसा यूरोपी सामंतवाद के खिलाफ फ़्रांसीसी बुर्जुआ दर्शनयानी वे इस बात को मानकर चलते हैं कि भारत के दलित वर्ग के पास उत्पादन के संसाधन हैं और अब वह राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष कर रहा है. फ्रांस में इसी तरह का संघर्ष बुर्जुआजी ने किया था. बिना सामाजिक स्थिति पर नज़र डाले इस तरह की प्रस्तावना को प्रकट करना इतिहास के साथ अन्याय है. इस तरह यहाँ उस महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी हो जाती है जिसके फलस्वरूप दलित राजनीति का विकास हुआ.  दलित आंदोलन मूलतः उत्पादन के संसाधनों वाले बुर्जुआजी का संघर्ष न होकर उत्पादन के संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष है.
दस्तावेज भारतीय समाज को आदिकाल  से ही एक इकाई के रूप में देखने की गंभीर भूल करता है और घोषणा करता है कि यहाँ वर्गीय शोषण के लिए उस हद तक बल प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी जैसी यूनान और रोम में. इसके बदले वर्ण व्यवस्था से काम चल गया (पृष्ठ ९).' भारत केवल मध्य भारत नहीं है, बल्कि यहाँ रेतीले रेगिस्तान और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र भी हैं और मध्यकाल तक यह एक इकाई न होकर अलग-अलग राज्य में बंटा हुआ भूभाग था.
जहाँ तक गुलामी का सवाल है तो यह बात याद कर लेना अच्छा होगा कि बुद्धकालीन और महाभारतकालीन भारतमें गुलामी ठीक उसी रूप में थी जैसा कि रोम और यूनान में. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्राकृतिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में थीऔर जमीन उपजाऊ थीऐतिहासिक साक्ष्य प्रमाणित करते हैं गुलामी की व्यवस्था एक लंबे समय तक इस उपमहादीप में स्थापित थी और इसका इतिहास में ठीक वैसा ही असर था जैसा अन्य क्षेत्रों में. वर्ण व्यवस्था गुलामी के विकल्प के रूप में विकसित नहीं हुई, बल्कि इसका आधार ब्राह्मणवादी धार्मिक व्यवस्था थी. रही बात बल प्रयोग न करने की तो ऐतिहासिक साक्ष्य यह प्रमाणित करते हैं कि आदिकाल में उस वर्ग के पास, जिसका विकास दलित वर्ग के रूप में हुआ, उत्पादन से संसाधन थे और बलप्रयोग करके ही उन्हें संसाधनों से वंचित किया गया.
दस्तावेज सामंतवाद को वर्ण व्यवस्था का आधार मानने की जगह वर्ण व्यवस्था को सामंतवाद का आधार मानता है. शुरू में इस बात की घोषणा करने के बावजूद कि मार्क्सवाद हर चीज़, हर परिघटना को उसके देशकाल में अवस्थित करके देखता हैदस्तावेज भूल जाता है कि विचार का आधार व्यवस्था होती है, न कि व्यवस्था का विचार. मार्क्सवाद को स्वीकार करने के बावजूद सामंतवाद के आधार के तौर पर वर्ण व्यवस्था को देखना अत्यंत स्थूल विश्लेषण है. बिना सामंतवाद के मजबूत आधार के वर्ण व्यवस्था को बरकरार नहीं रखा जा सकता. ठीक उसी तरह जैसा पूंजीवादी आधार के बिना पूंजीवाद को और समाजवादी आधार के बिना समाजवाद को.
और जब दस्तावेज के रचियता को यह समझ आता है कि सामंतवाद ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति की समूची हैसियत उसके जन्म के साथ तय हो जाती है’ (पृष्ठ 10) तो भारत की वर्तमान व्यवस्था को बुर्जुआजी व्यवस्था मानने के पीछे का कारण क्या है? भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था क्या एक अर्धसामंती राज्य नहीं है? यदि दस्तावेज के प्रस्तावना को ठीक कह कर स्वीकार कर लिया जाए कि भारत एक पूंजीवादी राज्य है (पृष्ठ 4) तो फिर यह भी स्वीकार कर लेना ही पड़ेगा कि जाति, जिसका आधार सामंतवाद है, भी खत्म हो गई है. सच्चाई कुछ और ही बयां करती है.   
दस्तावेज की और एक कमी है बिना आधार के स्वीकार करना कि आरक्षण के माध्यम से शासक वर्ग संपत्ति की व्यवस्था में कोई आमूल-चूल परिवर्तन किये बिना अपने आधार का विस्तार करता है और अपने खिलाफ शोषितों के असंतोष को विस्फोटक स्थिति तक जाने से रोकता है’ (पृष्ठ 5). यह उसी तरह का भौंडा तर्क है जो मार्क्स के समय वह लोग देते थे जो कहते थे कि यदि मजदूर वर्ग अधिक मजदूरी की मांग करेगा तो महंगाई बढ़ेगी. दस्तावेज यह क्यों नहीं देख पाता कि दलित बुद्धिजीवियों के विकास में आरक्षण का महत्वपूर्ण योगदान है. यह सच है कि यह सम्पत्ति संबंधों पर परिवर्तन नहीं करता, लेकिन यह यह भी सही है कि यह सामाजिक संपत्ति में हिस्सेदारी को व्यापक बनाता है.
दस्तावेज को पढ़ने से पता चलता है कि अपनी तमाम बड़ी घोषणा के बावजूद ये मार्क्सवादी भी भारत के सभी मार्क्सवादियों की तरह क्रांति की आशा बुर्जुआजी से करते हैं. वे चाहते हैं कि बुर्जुआजी बिना कुछ किये बैठा रहे और स्थिति को विस्फोटक हो जाने दे, ताकि ये सब मिलकर क्रांति कर लें. क्रांति के बारे में जाने वाले लोग समझते हैं कि विस्फोटक स्थिति बनती नहीं है, बल्कि वर्ग संघर्ष के जरिये बनाई जाती है. क्या मार्क्सवाद इतना लचर है कि वह विस्फोटक स्थिति का इंतज़ार करे न कि उसका निर्माण. और यदि विस्फोटक स्थिति स्वत: निर्मित होती है तो मार्क्सवादी पार्टी की जरूरत क्या है? क्या एक क्रांतिकारी पार्टी का पहला काम स्थिति को विस्फोटक बनाना नहीं होना चाहिए?
दस्तावेज बताने की कोशिश करता है कि आरक्षण एक बुर्जुआजी षड़यंत्र है जिसके चलते भारत विस्फोटक स्थिति तक नहीं पहुँच सका रहा है! बार-बार इस तथ्य की अनदेखी क्यों की जाती है आरक्षण संघर्ष का एक रूप है और यह दलितों के संघर्ष का परिणाम है. बिना संघर्ष के क्या आरक्षण को हासिल किया जा सकता है? और आगे बढ़कर कहें तो क्या बिना संघर्ष के आरक्षण को बचाया जा सकता है?
इसलिए दलित विमर्श को बुर्जुआजी दर्शन कहकर नकारना उसे समझने की भूल है. भारतीय समाज में दलित विमर्श की उत्पत्ति सामंतवाद के खिलाफ तो है, लेकिन यह बुर्जुआजी दर्शन से उस रूप में अलग है जब वह समाज में बराबरी की बात करता है. सामाजिक और आर्थिक बराबरी को अलग-अलग करके देखना मार्क्सवाद की समझ में बुनियादी गलती है, जबकि मार्क्सवाद अंततः सामाजिक बराबरी का दर्शन है जिसका उत्कर्ष आर्थिक बराबरी में होगा. इतिहास में जितनी भी समाजवादी सत्ताओं का जन्म हुआ (मुख्यतः रूस और चीन में) वहां पहले सामाजिक बराबरी ही स्थापित हुई थी. इसलिए दलित राजनीति का विकास समाजवादी राजनीति के विकास के खिलाफ न होकर उसका आधार निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. आत्मनिर्णय के सिद्धांत की लेनिनवादी मान्यता के अनुसार एक देश के सर्वहारा को सबसे पहले विश्वभर के सर्वहारा को बराबरी से देखना होगा. यानी लेनिन भी सामाजिक बराबरी को आर्थिक बराबरी के पहले के चरण के रूप में ही देखते हैं, न कि इसके उलट. 
जब दलित चिन्तक जाति व्यवस्था को ब्राह्मण का षड़यंत्र बताते हैं तो इसका अर्थ होता है सत्ता का षड़यंत्र, क्योंकि सत्ता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर उनके पास ही रही है. दलित राजनीति सामाजिक बराबरी के लिए ही अस्तित्व में आ सकती है, क्योंकि दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में हम देख सकते हैं कि आर्थिक बराबरी सामाजिक बराबरी का आधार तो है, परन्तु यह उसका मूल स्वभाव नहीं है. इस तरह उनका संघर्ष दो चरणों में सामने आता है -आर्थिक और सामाजिक.
सामाजिक बराबरी का उनका संघर्ष आर्थिक बराबरी के संघर्ष के साथ और कई मामलों में इससे पहले प्रकट होता है. इसका कारण है अभी संसदीय राजनीति में इसकी संभावना पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. ऐसे क्षेत्रों में जहाँ इससे सकारात्मक परिणाम की अब कोई संभावना नहीं है (आदिवासी क्षेत्रों में), वहां यह सशस्त्र संघर्ष के रूप में विकसित हो चुका है. यह दलित राजनीति का भविष्य भी है, क्योंकि सामाजिक बराबरी के लिए संघर्ष का विकास अंततः आर्थिक बराबरी के संघर्ष के रूप में विकसित होगा और ठीक यहीं से यह संसदीय राजनीति से ऊपर उठ जायेगा.
यदि आन्दोलन के इस रूप को पीछे धकेलकर सीधे अर्थ केंद्रित आंदोलन पर केंद्रित कर दिया जाये तो इसका असर मूलतः नुकसानदायक होगा. दलित आंदोलन को केवल बुद्धिजीवी षड़यंत्रबताकर इसके प्रगतिशील प्रस्तावना को छोड देना वैचारिक स्तर पर आत्मघाती है.
लेकिन सवाल इससे अधिक का है, वह यह कि कौन किसे जोड़ेगा? क्या मजदूर वर्ग दलित को अपने साथ लेकर क्रांति करेगा या दलित मजदूर को अपने साथ लेकर भारतीय क्रांति को पूरा करेगा? या जिसे सर्वहारा माना जा रहा है वह दलित है? क्योंकि भारतीय सन्दर्भ में सर्वहारा की परिभाषा के सबसे नजदीक दलित ही हो सकता है. इसलिए इस मायने में दलित वह शक्ति है जो इस उपमहादीप में क्रांति को अपने अंतिम चरण तक ले जा सकती है.
दस्तावेज मानता है कि अंग्रेजी शासन के कारण भारत में पूंजीवाद का उदय हुआ, जबकि तथ्य बताते हैं कि अंग्रेजी शासन ने न केवल टूटते सामंती समाज को जीवनदान दिया, बल्कि कई अवसरों में तो स्थापित किया और इसी के परिणामस्वरुप आज यह व्यवस्था बनी हुई है.  खुद मार्क्स ने भारत के बारे में लिखा है कि कच्चे माल को इंग्लैंड निर्यात कर और वहां के कारखानों में निर्मित सस्ते माल से भारतीय बाज़ार को भरकर अंग्रेजी शासन ने शुरू से ही यहाँ विकसित होते पूंजीवाद को रोकने का प्रयास किया. दस्तावेज एक फ़तवादेकर भारत को पूंजीवादी देश घोषित कर देता है और कहीं भी यह बताने का प्रयास नहीं करता कि क्यों यह पूंजीवादी देश है न कि सामंतवादी जबकि भारत के सामाजिक ढांचे के बारे में जो कुछ भी, कम ज्यादा दस्तावेज में लिखा है उससे तो भारत पूंजीवादी कम और सामंतवादी देश अधिक दिखाई देता है. जबकि दस्तावेज में साफ़ लिखा है कि मार्क्सवाद उन दलितों की मुक्ति का दर्शन है जो सर्वहारा बन चुके हैं... मार्क्सवाद उन दलितों को अपना दुश्मन मानता है जो बुर्जुआ बन चुके हैं (पृष्ठ 17).'
यहाँ सवाल है कि दलित सर्वहारा कैसे बनेगा? क्या आदिकाल से ही जबसे दलित वर्ग का उदय हुआ है दलित सर्वहारा नहीं है? उसके पास ऐसा क्या था जिसके न होने पर ही वह सर्वहारा बन जायेगा? यदि उत्पादन के संसाधन न होने पर कोई सर्वहारा कहलाता है तो भारत के दलित यकीनी तौर पर सर्वहारा हैं और भारत के सर्वहारा दलित. क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि भारत में सर्वहारा को दलित कहा जाये? यदि दस्तावेज लिखने वालों को ऐसा कहने में संकोचहै तो इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि वे भी जातिवाद के शिकार हैं. भारत में दलित ही ऐसा वर्ग है जो सर्वहारा की मार्क्सवादी परिभाषा में सही उतरता है.
दस्तावेज में आंबेडकरवादी चिंतकों पर आरोपलगाया गया है कि उन्होंने जमीन जब्त करने, उसे पुनर्वितरण करने, किसानों और मेहनतकश जनता के सभी कर्ज को रद्द करने जैसी क्रांतिकारी योजना कभी प्रस्तुत नहीं की. लेकिन क्या लिखते वक्त कभी यह गौर किया गया कि संवैधानिक दायरे में रहकर आंबेडकरवादी चिन्तक ऐसा कर सकते हैं. उनके संवैधानिक आंदोलन से इस तरह कि आशा करना क्या बचकानी बात नहीं है. पहले यह तय कर लेना जरूरी है कि किस तरह के आंदोलन से क्या अपेक्षा की जाये. कोई अपने जूते में दूसरों का पैर डालने की कोशिश करे और साथ में यह भी कहता रहे कि पैर की गलती है कि वह अंदर नहीं जा रहा तो ऐसे में उसे क्या समझा जाए. आंबेडकरवादी चिंतकों को उनकी सीमा में समझने की जगह उन्हें अपने ढांचे में ठूस देना सैधांतिक दरिद्रता है.
दस्तावेज पढ़ने पर एक बार लगता है कि इसके प्रस्तावकों को मार्क्सवाद पर कम विश्वास है और ये दलित चिन्तक से अधिक डरे हुए हैं.