पूरे विश्व में हिन्दी और
उर्दू संभवतः अकेली ऐसी भाषाएं हैं जिनके संज्ञा, सर्वनाम,
क्रियापद और वाक्यरचना पूर्णतः समान होने के बावजूद उन्हें दो
अलग-अलग भाषाएं माना जाता है.
कुछ लोग इसीलिए
सद्भावनावश और कुछ अन्य दुर्भावनावश हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा की दो शैलियाँ
मानते हैं और उनके बीच लिपिभेद को ही बुनियादी भेद समझते हैं क्योंकि हिन्दी को
देवनागरी लिपि में लिखा जाता है और उर्दू को फारसी और अरबी के मिश्रण से बनी लिपि
में. जो लोग सद्भावनावश ऐसा कहते हैं, उनका उद्देश्य दोनों भाषाओं की साझी विरासत और परंपरा को
रेखांकित करना और दोनों को एक-दूसरे के करीब लाना होता है, लेकिन
जो लोग दुर्भावनावश ऐसा कहते हैं उनका लक्ष्य उर्दू को भी हिन्दी की एक शैली बताकर
उसे हिन्दी के भीतर ही समेट लेना है.
स्वाभाविक रूप से
उर्दूवाले इन दोनों ही तरह के लोगों को संदेह की नजर से देखते हैं और इसके पीछे
हिन्दीवालों की विस्तारवादी साजिश की गंध सूंघते हैं. यही नहीं, उन्हें हिन्दी प्रदेश कहे जाने वाले
विशाल क्षेत्र में बोली जाने वाली बोलियों और भाषाओं को भी हिन्दी का हिस्सा मान
लेने पर भी आपत्ति है. अभी हाल ही में प्रसिद्ध उर्दू लेखक और आलोचक शम्सुर्रहमान
फारूकी ने इस प्रवृत्ति को हिन्दी के वर्चस्ववाद का द्योतक बताते हुए हिन्दी-उर्दू
संबंध पर भी इसकी छाया पड़ने की ओर इशारा किया था. उनके इस वक्तव्य ने एक बार फिर
इन जुड़वां भाषाओं के आपसी रिश्तों को विमर्श के केंद्र में ला दिया है. दरअसल इन
दो भाषाओं के बीच का रिश्ता केवल भाषा या साहित्य तक ही सीमित नहीं है, इसलिए इस पर बहसें अक्सर ठोस वैचारिकता और ऐतिहासिक एवं भाषावैज्ञानिक
तथ्यों तथा तर्कों पर नहीं, राजनीतिक दृष्टिकोणजनित भावावेश
में की जाती हैं. उर्दू-हिन्दी संबंध पिछली चार सदियों के दौरान विकसित हुआ है और
इसी कालावधि में इन दोनों के बीच दूरी बढ़ती गई है. देश के विभाजन, पाकिस्तान की मांग के साथ उर्दू का जुड़ाव और विभाजन के बाद उसका पाकिस्तान
की राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा बनना भी भारत में हिन्दी के साथ उसके संबंध को
प्रभावित करता रहा है. पाकिस्तान में तो हिन्दी का अस्तित्व ही नहीं है, इसलिए यह समस्या मुख्य रूप से भारत में रहने वाले हिन्दी और उर्दूभाषियों
की ही है.
अमृतराय ने गहन शोध के
आधार पर स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि सत्रहवीं सदी के अंत और अट्ठारहवीं सदी के
आरंभ में ही रेख्ते या उर्दू या हिंदवी में से संस्कृत मूल के शब्दों को निकाल
बाहर करने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी थी. इसलिए जब 1800 में अंग्रेजों ने कलकत्ते में
फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना करने के साथ ही हिन्दी और उर्दू को दो पृथक भाषाओं
के रूप में अलग करके इस विभाजन की औपचारिक रूप से नींव डाली, तब तक लगभग एक सदी तक पृथकतावादी तत्व सक्रिय रह चुके थे. हालांकि आज भी
रोजमर्रा के व्यवहार में बोलचाल के स्तर पर हिन्दी और उर्दू को एक-दूसरे से अलगाना
बेहद मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव ही है, लेकिन उनके
साहित्यिक रूप एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हो चुके हैं. विचार की भाषा के रूप में भी
आज हिन्दी और उर्दू एक-दूसरे से नितांत भिन्न हैं.
फिराक गोरखपुरी जैसे
शीर्षस्थ उर्दू कवि की भी यह मान्यता थी, और इस मामले में उनके विचार अमृतराय के काफी नजदीक पड़ते हैं,
कि उर्दू ने स्थानीय बोली और संस्कृति से अपना दामन बचा कर रखा
जिसके कारण उसकी कविता में भारत की मिट्टी की वैसी सोंधी महक नहीं आ पायी जैसी आनी
चाहिए थी. इस कारण वह शहरी अभिजात वर्ग की साहित्यिक भाषा बनकर रह गई. यदि इस
दृष्टि से देखें तो हिन्दी इससे मुक्त रही है. उसने अवधी, ब्रज,
मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी
और खड़ीबोली, सबकी भाषिक और साहित्यिक संपदा को अपनाया.
हालांकि जिसे आज हम हिन्दी कहते हैं, वह खड़ीबोली का ही
परिष्कृत रूप है, लेकिन उसे हिन्दी प्रदेश की अन्य बोलियों
और भाषाओं की साझा परंपरा और विरासत से परहेज नहीं, लेकिन
इसी को शम्सुर्रहमान फारूकी हिन्दी का वर्चस्ववादी रुझान समझते हैं.
आज स्थिति यह है कि
हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में सभी स्तरों पर कबीर, रैदास, मालिक
मुहम्मद जायसी, सूरदास, तुलसीदास,
रहीम, रसखान और विद्यापति जैसे कवियों को
शामिल किया जाता है जो खड़ीबोली के नहीं बल्कि अवधी, ब्रज,
मैथिली आदि भाषाओं के कवि हैं, लेकिन उर्दू के
पाठ्यक्रम में इस विरासत को स्वीकार नहीं किया जाता. अमीर खुसरो को हिन्दी/उर्दू
का पहला कवि तो माना जाता है लेकिन उनके बाद के विकास का इतिहास दोनों भाषाओं में
अलग-अलग है.
विडम्बना यह है कि
खड़ीबोली हिन्दी में भी उसी तरह की प्रवृत्ति ने जड़ जमा ली है जिसके कारण अठारहवीं
सदी और उसके बाद के काल में उर्दू से संस्कृत और स्थानीय बोलियों के शब्दों को
निकाला गया. हिन्दी में संस्कृत शब्दों को अनावश्यक ढंग से ठूंसने की परंपरा चल
निकली है जिसके कारण भाषा और जनता के बीच दूरी लगातार बढ़ती जा रही है. एक दूसरा
बदलाव यह हुआ है कि बहुत-सा उर्दू साहित्य देवनागरी लिपि में छप कर सामने आया है
और हिन्दी पाठकों के बीच लोकप्रिय हुआ है. आज मीर, गालिब, इकबाल, फिराक, फैज, इंतजार हुसैन,
अहमद फराज और फहमीदा रियाज को जितना हिन्दी के पाठक पढ़ रहे हैं,
उतना शायद उन्हें उर्दू के पाठक भी न पढ़ रहे हों. नतीजा यह है कि एक
ओर जहां हिन्दी और उर्दू के बीच तनावपूर्ण रिश्ते बरकारर हैं, वहीं दूसरी ओर वे अपने पाठकों के जरिये एक दूसरे के नजदीक भी आ रही हैं.
हो सकता है कुछ लोग इसके पीछे भी हिन्दी का वर्चस्ववाद ढूंढ लें.
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