निबंधों की दुनिया में आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक बड़े
हस्ताक्षर हैं। शुक्ल जी ने अपने निबंधों के केंद्र में ऐसे विषयों को रखा है जो
अब तक निबंध-साहित्य की परिधि से या तो बाहर रहे हैं अथवा कम चर्चा में रहे हैं।
चिंतामणि भाग-1 में संकलित भाव या मनोविकार संबंधी निबंध (उत्साह, श्रद्धा-भक्ति, करुणा, लज्जा और ग्लानि, लोभ और प्रीति, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध आदि) इस बात के पुख़्ता गवाह हैं। हालांकि इससे पहले प्रतापनारायण
मिश्र ने ‘चिंता’, ‘सत्य’, ‘न्याय’, ‘विश्वास’, ‘छल’, ‘धोखा’, ‘खुशामद’ जैसे विषयों पर कई
निबंध लिखे हैं। इन निबंधों की विशेषता यह है इसमें उन्होंने बुरे समझे जाने वाले
भावों अथवा विचारों के वैशिष्ट्य की चर्चा की है। यह कहा जा सकता है कि इन्हीं संकेतों
को समझते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंधों में सभी मनोभावों की सामाजिक
उपादेयता को बहुत ही बारीकी के साथ विश्लेषित करने का प्रयास किया है। शुक्ल जी के
निबंधों का जीवन से गहरा तालमेल है। वह स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि भाव
अथवा मनोविकार ही मानव जीवन के समस्त क्रियाकलापों के प्रवर्तक हैं।
आचार्य रामचंद्र
शुक्ल का चिंतन उनके समकालीन निबंधकारों से बिल्कुल भिन्न है। कुछेक निबंधों को
छोड़कर देखा जाय तो शुक्ल जी मनोभाव संबंधी निबंधों की चर्चा बाल-मनोवृत्तियों से
ही शुरू करते हैं। अपने पहले निबंध ‘भाव या मनोविकार’ की शुरुआत भी उन्होंने
इसी बात से ही की है। वे लिखते हैं- “अनुभूति के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरंभ होता है। उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार
में आता है। बच्चे के छोटे से हृदय में पहले सुख और दुख की सामान्य अनुभूति भरने
के लिए जगह होती है। पेट का भरा या खाली रहना ही ऐसी अनुभूति के लिए पर्याप्त होता
है। जीवन के आरंभ में इन्हीं दोनों के चिह्न हँसना और रोना देखे जाते हैं पर ये
अनुभूतियाँ बिल्कुल सामान्य रूप में रहती हैं, विशेष-विशेष विषयों की ओर विशेष-विशेष रूपों में ज्ञानपूर्वक
उन्मुख नहीं होती।”[1] निश्चित रूप से शुक्ल जी को अनुभूतियों के स्वरूप का सूक्ष्म
ज्ञान है। उनका मानना है कि इन्हीं अनुभूतियों के विस्तार से भाव एवं मनोविकारों
का जन्म होता है। बचपन से ही मनुष्य के अंदर यह वृत्तियाँ स्थायी भाव के रूप में
पहले से ही विद्यमान होती हैं। एहसास के स्तर पर बच्चों के अंदर इन भावों की
अभिव्यक्ति का अंतर भले ही क्यों न हो पर अनुभूति का स्तर एक जैसा ही होता है।
उदाहरण के रूप में पेट का खाली होना। आचार्य शुक्ल ने जिन मनोभावों को केंद्र में
रखा है उनका सीधा संबंध रस-शास्त्र से है। एक प्रकार से देखें तो इनका सरोकार रस
से संबंध रखने वाले स्थायी भाव एवं संचारी भाव से है। यह सभी मनोभाव बच्चों के
अंदर स्थायी रूप से विद्यमान होते हैं। हाँ, यह संभव है कि इन भावों का स्वरूप उनके अंदर प्रौढ़ भले ही न
हो लेकिन समय सापेक्ष इनका विकास बहुत ही तीव्र गति से होता है। घृणा, करुणा, लज्जा, उत्साह जैसे
भाव इस बात के सशक्त उदाहरण हैं।
आचार्य रामचंद्र
शुक्ल का मानना है कि सुख और दुख की मूल अनुभूति से ही इन मनोभावों को विस्तार
मिलता है। शुक्ल जी ने अपने निबंधों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या से कहीं ज्यादा व्यावहारिक
व्याख्या की है। उदाहरण के रूप में क्रोध निबंध के इन पंक्तियों को देखा जा सकता
है- “तीन-चार महीने के बच्चे को कोई हाथ उठाकर मार दे, तो उसने हाथ उठाते तो देखा है पर अपनी पीड़ा
और उस हाथ उठाने से क्या संबंध है, यह वह नहीं जानता। अतः वह
केवल रोकर अपना दुख मात्र प्रकट कर देता है। दुख के कारण की स्पष्ट धारणा के बिना
क्रोध का उदय नहीं होता।... शिशु अपनी माता की आकृति से परिचित हो जाने पर ज्योंही
यह जान जाता है कि दूध इसी से मिलता है, भूखा होने पर वह उसे
देखते ही अपने रोने में कुछ क्रोध का आभास देने लगता है।”[2] शुक्ल जी ने इस बात की ओर संकेत किया है कि बच्चों के अंदर
कार्य-कारण-संबंध जैसी प्रवत्तियों का बोध भले ही न हो लेकिन उनके हाव-भाव से यह
आसानी से पता चल जाता है कि वह किस मनोस्थिति में हैं। निश्चित रूप से बच्चे को यह
पता नहीं चल पाता कि वह क्रोध या गुस्सा कर रहा है। बच्चे की भूख या उसके रोने का
एहसास स्वतः उसके मनोभावों को व्यक्त कर देते हैं। शुक्लजी किसी भी विषय-वस्तु का
विश्लेषण सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों स्तरों पर करते हैं, यह उनके चिंतन पक्ष की बड़ी खूबी है।
शुक्ल जी के
निबंधों का सरोकार मनोवैज्ञानिक कम समाजशास्त्रीय अधिक है। आचार्य शुक्ल ने अपने
निबंधों के बहाने बाल-मनोभावों से जुड़ी कई महत्वपूर्ण एवं सूक्ष्म वृत्तियों पर
फोकस किया है। निबंधों में उद्धृत मनोभावों को यदि हम बाल-मनोविमर्श के आलोक में
देखें तो इसमें शुक्ल जी ने मुख्यतः दो तरह की कोटियों की चर्चा की है। उनके
अनुसार कुछ ऐसे मनोभाव होते हैं जो बच्चों में बचपन के दो वर्षों के भीतर ही स्पष्ट
रूप में दिखने लगते हैं जैसे- प्रेम, प्रसन्नता, क्रोध, भय, ईर्ष्या, घृणा आदि। दूसरे
वे जिनका विकास समय-सापेक्ष होता है या हम यूं कहें कि बच्चों में ये भाव तब दिखते
हैं जब उन्हें थोड़ा-थोड़ा नैतिकता एवं सामाजिकता का बोध होने लगता है। उदाहरण के
रूप में हम लज्जा और ग्लानि जैसे मनोभावों/मनोविकारों को इस श्रेणी के अंतर्गत रख
सकते हैं। स्पष्ट है बच्चे में लोभ अथवा प्रीति का भाव जितना जल्दी आ सकता है उतना
जल्दी श्रद्धा अथवा ग्लानि का नहीं। बच्चों के जीवन का कोई ऐसा क्षण नहीं होता जब
वे किसी न किसी न किसी भाव अथवा संवेग का अनुभव न करते हों। बच्चे कुछ भावों का बोध
अपने व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा करते हैं तो कुछ अनुकरण के द्वारा।
आचार्य शुक्ल का
मानना है कि बच्चों के अंदर कुछ भाव सहज रूप में पहले से ही विद्यमान होते हैं। शुक्ल
जी ने इन मनोभावों की चर्चा अपने निबंध करुणा, ईर्ष्या, क्रोध,
घृणा एवं भय आदि में विस्तार से की है। उन्होंने अपने निबंध करुणा में सहज
मनोवृत्तियों की चर्चा करते हुए लिखा है कि- “जब बच्चे को संबंध ज्ञान कुछ-कुछ होने लगता है तभी दुख के उस
भेद की नींव पड़ जाती है जिसे करुणा कहते हैं। बच्चा पहले परखता है कि जैसे हम हैं
वैसे ही ये और प्राणी भी हैं और बिना किसी विवेचना क्रम के स्वाभाविक प्रवृत्ति
द्वारा, वह
अपने अनुभवों का आरोप दूसरे प्राणियों पर करता है। फिर कार्य-कारण-संबंध से
अभ्यस्त होने पर दूसरों के दुख या कार्य को देखकर उनके दुख का अनुमान करता है और
स्वयं एक प्रकार का दुख अनुभव करता है। प्रायः देखा जाता है कि जब माँ झूठ-मूठ ‘ऊँ-ऊँ करके रोने लगती है तब कोई-कोई बच्चे भी रो पड़ते हैं। इसी प्रकार जब
उनके किसी भी भाई या बहिन को कोई मारने उठता है तब वे कुछ चंचल हो उठते हैं।”[3] चर्चित मनोवैज्ञानिक जे. वी. वाटसन ने भी बच्चों के मनोभावों
पर व्यवस्थित विचार व्यक्त किए हैं। उनका मानना है कि भय, प्रेम तथा क्रोध यह तीन ही ऐसे मनोभाव हैं जो
बच्चों के भीतर जन्म से ही पाए जाते हैं। ध्यातव्य है इन तीनों मनोवृत्तियों पर
शुक्ल जी ने भी अपने निबंधों में विधिवत बातचीत की है।
एक प्रकार से
देखें तो बाल-मनोविज्ञान शुक्ल जी के निबंधों का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। उन्होंने
इन भावों अथवा मनोविकारों को समाज-मनोविज्ञान की कसौटी पर परखने की कोशिश की है।
निश्चित तौर पर शुक्ल जी के निबंधों में बाल-मनोविमर्श से जुड़े ऐसे तमाम सूक्ष्म
पहलू हैं जिन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
[1] चिंतामणि (भाग-1), रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-1
[2] चिंतामणि (भाग-1), रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ-81
1.
शुक्ल,
रामचंद्र. (2009), चिंतामणि. वाराणसी: विश्वविद्यालय
प्रकाशन.
2.शर्मा,
रामविलास. (2009). आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना. नई दिल्ली: राजकमल
प्रकाशन.
3.
सिंह,
ओमप्रकाश (संपा.). (2012). आचार्य रामचंद्र शुक्ल वैचारिक परिभूमि. नई दिल्ली:
प्रकाशन संस्थान.
4.
लाल, जे. एन., श्रीवास्तव
(संपादक). (2013). नवीन विकासात्मक मनोविज्ञान. आगरा: अग्रवाल पब्लिकेशन
5.
चतुर्वेदी,
रामस्वरूप. (2014). हिंदी गद्य विन्यास और विकास. इलाहाबाद: लोकभारती प्रकाशन
6.
मधुकर,
महेंद्र. (1987). आचार्य शुक्ल का आलोचनाशास्त्र. दिल्ली: मंजुल प्रकाशन.