Saturday, 30 January 2016

कलम, आज उनकी जय बोल...



 “सुनूँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युगधर्म का हुँकार हूँ मैं 
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का, प्रलय गांडीव की टंकार हूँ मैं...
भारतीय जनमानस के दमित आक्रोश को स्वर देने वाले रामधारी सिंह दिनकर को युग कवि होने का गौरव प्राप्त है। दिनकर की रचनाशीलता का फ़लक न केवल अत्यंत विस्तृत है बल्कि बहुआयामी भी है। उनके लेखन में अनुभूतियों विचारों और शिल्प के जितने भी रूप उभरते हैं, उसे किसी वाद, विचारधारा या प्रवृत्ति में आबद्ध नहीं किया जा सकता। दिनकर की रचनाओं में आत्मविश्वास, आशावाद, संघर्ष, राष्ट्रीयता एवं भारतीय संस्कृति का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। सही अर्थों में दिनकर चेतना एवं विश्वास के कवि हैं।  हस्तक्षेप कवि का गुणधर्म है।
लगातार यह सवाल उठाया जाता रहा है कि क्या दिनकर का लेखन उनके कवि मानस की सहज प्रवृत्ति है या किन्हीं दबावों से वह उनकी रचनाधर्मिता पर आरोपित हुई है? समीक्षकों द्वारा उन्हें युगचारण की भी संज्ञा दी गई। हालांकि इससे पूरी तरह से सहमत होना तो संभव नहीं ही है पर कुछ हद तक खारिज करना भी असंगत जान पड़ता है।  यदि हम समग्रता में दिनकर जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन करें तो पाएंगे कि उनका मूलभूत व्यक्तित्व एक प्रेमी का व्यक्तित्व है।  दिनकर ने स्वयं चक्रवाल की भूमिका में लिखा है- “मेरी राष्ट्रीय कविताओं और मेरे जीवन के बीच एक प्रकार की भिन्नता रही है...राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर से नहीं जन्मीं, उसने बाहर से आकर मुझे आक्रांत किया। ” वास्तव में दिनकर की राष्ट्रीयता भाववादी राष्ट्रीयता है जिसमें चिंतन की अपेक्षा आवेग और आक्रोश ही प्रधान है। गुलामी के परिवेश में अंग्रेजों के शोषण की प्रतिक्रिया का शक्तिशाली रूप दिनकर के काव्य में दिखाई देता है। गौरतलब है, प्रणभंग से लेकर परशुराम की प्रतीक्षा तक दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय चेतना किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है। हाँ, यह संदर्भ अलग है कि उनकी राष्ट्रीयता संबंधी अवधारणा में ससमय मूलभूत परिवर्तन होते रहे।  
दिनकर मिथकीय चरित्रों के सफल प्रयोगकर्ता हैं। सही अर्थों में देखा जाय तो कवि ने  अपनी रचनाओं में जिन  मिथकीय पात्रों को रचा है, वे अतीत और वर्तमान के संवादसेतु हैं। दिनकर की यह पंक्तियाँ इस बात की साक्षी हैं- “जब भी अतीत में जाता हूँ / मुरदों को नहीं जिलाता हूँ/ पीछे हटकर फेकता बाण/ जिससे कंपित हो वर्तमान।” इन पंक्तियों से ज़ाहिर है कि दिनकर की मिथकीय चेतना वर्तमान की ओर उन्मुख है।  जनमानस में नवीन चेतना का आगाज़ ही उनकी रचनाओं का ध्येय रहा है। दिनकर के कविकर्म की परिधि जितनी बड़ी है उनके साहित्यालोचन का भी फ़लक उतना ही विस्तृत है। मिट्टी की ओर (1949), अर्धनारीश्वर (1952), काव्य की भूमिका (1958), पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण (1958), शुद्ध कविता की खोज (1966), आदि इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं।  यह कहना बिल्कुल असंगत नहीं होगा कि रामधारी सिंह दिनकर जितने बड़े कवि हैं उतने समर्थ गद्यकार भी हैं।
दिनकर के व्यक्तित्व की छाप उनकी प्रत्येक पंक्ति पर है, पर कहीं-कहीं भावक को व्यक्तित्व की जगह वकृत्व ही मिल पाता है। दिनकर की शैली में प्रवाह है, अनुभूति की तीव्रता है, सच्ची संवेदना है। इनकी अधिकांश रचनाओं में काव्य की शैली रचना के विषय और 'मूड' के अनुरूप हैं। दिनकर की कविता का विशिष्ट गुण है कि जहाँ उसमें अभिव्यक्ति की तीव्रता है, वहीं उसके साथ ही चिंतन-मनन कीभी प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है। दिनकर जी जहां एक तरफ गांधीवाद को आदर्श मानते रहे वहीं दूसरी ओर वे मार्क्सवाद के भी पक्षधर थे। गांधीवाद में जहां उन्हें भारतीय चिंतन-धारा का सार दिखाई पड़ता था वहीं मार्क्सवाद, उनकी प्रगतिशील चेतना को पुष्ट करता था।  ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान समारोह में सम्मानित होते समय उन्होंने कहा था- “जिस तरह मैं जवानी भर इकबाल और रवींद्र के बीच झटके खाता रहा, उसी तरह मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूँ। इसीलिए उजाले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही मेरी कविता का रंग है। मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारतवर्ष के व्यक्तित्व का भी होगा।”
रामधारी सिंह दिनकर के काव्य की एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है- रूमानियत। दरअसल दिनकर के काव्य का यदि हम बारीकी से अन्वेषण करें तो पाएंगे कि वे निरंतर साहित्य की तमाम प्रवृत्तियों को लेकर द्वंद्वग्रस्त रहे हैं। द्वंद्व की यही स्थिति ही उनके काव्य में अनेक अंतर्विरोधों का कारण बनी- मिटा दूंगा ब्रम्हा का लेख/ फिरा लूंगा खोया निज दाँव/ चलूँगा निज बल हो निःशंक/ नियति के सिर पर देकर पाँव। दिनकर ने अपने काव्य में जिन मूल्यों का  प्रतिपादन किया है उनमें तमाम अंतर्विरोध महसूस किए जा सकते हैं। वस्तुतः दिनकर जी मानवतावाद के समर्थक थे। वे जड़ता और निष्क्रियता को समाप्त कर आत्म गौरव की भावना को जाग्रत करने में आजीवन संलग्न रहे। उनकी रचनाएँ  तत्कालीन युग को  समग्र रूप में प्रतिबिंबित करने में समर्थ हैं। समर शेष है कविता में वे अपने समय एवं समाज का चित्र खीचते हुए अपनी प्रतिक्रिया दर्ज़ करते हैं- कुंकुम लेपूँ? किसे सुनाऊँ? किसको कोमल गान?/ तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिंदुस्तान। समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि हम उर्वशी को छोड़ दें तो दिनकर की अधिकांश रचनाएँ वीर रस से ओत-प्रोत हैं। भूषण के बाद दिनकर को वीर रस का श्रेष्ठ कवि होने का दर्जा प्राप्त है। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक समानता एवं शोषण के खिलाफ कविताएं लिखी। दिनकर एक युगद्रष्टा साहित्यकार थे।  उनके व्यक्तित्व में कहीं कोई किसी भी प्रकार का छल-छद्म अथवा दिखावा नहीं था।  उन्होंने राष्ट्र के हक में कलम चलाने में कोई कोताही नहीं की- समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं/ गांधी का पीआईआई रुधिर, जवाहर पर फुँकार रहे हैं। दिनकर को उनकी उत्कृष्ट पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय  के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं उर्वशी के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया। निश्चित रूप से दिनकर अपनी लेखनी एवं लेखन की वजह  से सदा स्मरण किए जाते रहेंगे। 


लेखकीय परिचय- 

 

प्रदीप त्रिपाठी 
स्वतंत्र लेखक/ शोध-अध्येता, 
      महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 
मोबाइल- 8928110451, 
ईमेल- tripathiexpress@gmail.com


   

Thursday, 21 January 2016

हाशिये का समाज और कविता में आदिवासी

हाशिये का समाज और कविता में आदिवासी  

विधागत स्तर पर यदि हम आदिवासी जीवन के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी कविता पर गौर करें तो इस दृष्टि से यह विधा काफी सशक्त एवं समृद्ध है हिंदी कविता में विनोद कुमार शुक्ल, लीलाधर मंडलोई, निर्मला पुतुल, हरीराम मीणा, सरिता बड़ाइक, रोज केरकेट्टा, ग्रेस कूजूर, उज्ज्वला ज्योति तिग्गा, वंदना टेटे, रोज केरकेट्टा, अनुज लुगुन एवं जासिंता केरकेट्टा जैसे तमाम ऐसे आदिवासी अथवा गैर आदिवासी रचनाकारों का एक लंबी फेहरिस्त रही है जिन्होंने न सिर्फ आदिवासी-जीवन को अपनी कविताओं का केंद्रीय विषय बनाया बल्कि उसे एक नई दिशा देने में भी अहम भूमिका अदा की। कविताओं के माध्यम से आदिवासी समाज को विमर्श के केंद्र में लाने एवं इसे मुख्य धारा से जोड़ने में भी इन रचनाकारों की महती भूमिका रही है। इन रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में आदिवासी समाज के उन प्रश्नों की तरफ ध्यान केंद्रित किया है जो आदिवासियों में प्रेरणा, जागरूकता एवं अपने हक के प्रति लड़ने की शक्ति दे सके। इसमें लक्षित विद्रोह जीवन के बुनियादी हकों से महरूम करने वाली व्यवस्था के विरोध की अभिव्यक्ति है। यह साहित्य केवल शब्दबद्ध रचना नहीं बल्कि मुद्दों पर आधारित शोषित, उपेक्षित, बहिष्कृत वर्ग की आवाज उठाने वाला प्रतिबद्ध, परिवर्तनकारी और शब्दबद्ध साहित्य है। इसमें प्रतिरोध का भाव है, विरोध का माद्दा है। अस्वीकार का साहस है।
          आदिवासी कविता इस संकट से पूरी मजबूती एवं ईमानदारी के साथ लड़ती है। इन कविताओं को भावबोध के धरातल पर देखा जाय इसमें मुख्य रूप से तीन तरह की कविताएं मिलती हैं। एक ,आदिवासी समाज की समस्याओं से संबंधित कविताएं जिनके भीतर उनके जंगल और जमीन छिनने की व्यथा- कथा है। दूसरी, नारी अस्मिता से संबंधित कविताएं जिसमें आदिवासी नारी की वेदना का यथार्थ विवरण है, अस्मिता का अनिवार्य और अनवरत संघर्ष है और तीसरी वे जो परिवेश और पर्यावरण को आधार बनाकर लिखी गई हैं। इनकी कविताएं आदिवासी समाज की चिंताओं एवं  समस्याओं से न सिर्फ गहरे रूप में आंदोलित हैं बल्कि शोषण अत्याचार और उत्पीड़न की अमानवीय व्यवस्था का पुरजोर विरोध करते हुए अपने समाज की कमजोरियों को उजागर करने के लिए प्रतिबद्ध भी दिखाई देती हैं।  उदाहरण के रूप में निर्मला पुतुल की इस कविता को देखा जा सकता है- मैं चुप हूँ तो मत समझो कि मैं गूंगी हूँ / या कि रखा है मैंने आजीवन मौन व्रत/ गहराती चुप्पी के अंधेरे में सुलग रही हैं भीतर आक्रोश की आग। आगे वह फिर लिखती हैं- “अक्सर चुप रहने वाला आदमी/ कभी न कभी बोलेगा/ जरूर सिर उठाकर/ चुप्पी टूटेगी एक दिन धीरे-धीरे उसकी/ धीरे-धीरे सख़्त होंगे उसके इरादे व्यवस्था के खिलाफ/ भीतर-भीतर ईजाद करते/ कई-कई खतरनाक शस्त्र।” आदिवासियों के खिलाफ हो रहे इस सारे षड्यंत्र को हिंदी कविता इसे अपना विषय ही नहीं बनाती बल्कि उनके खिलाफ प्रतिपक्ष की सुदृढ़ जमीन भी तैयार करती है।
समकालीन हिंदी कविता में आई आदिवासियों की समस्याओं को मोटे तौर पर दो भागों में बांटकर देखा जा सकता है। पहली उपनिवेशकाल में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से पैदा हुई समस्याएँ और दूसरी, आजादी के बाद शासन की जनविरोधी नीतियों और उदारवाद के बाद की समस्याएँ। जहां आजादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएँ वनोपज पर प्रतिबंध,तरह-तरह के  लगान, महाजनी शोषण प्रशासन की ज़्यादतियाँ आदि रही हैं वहीं आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के मॉडल से आदिवासियों द्वारा उनके जल, जंगल एवं जमीन छीनकर उन्हें बेदखल करने की प्रक्रिया आज जोरों पर है। विस्थापन उनके जीवन की मूल समस्या बन गई है। इस प्रक्रिया में एक ओर तो उनसे उनकी सांस्कृतिक पहचान छिनती जा रही है वहीं दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का भी प्रश्न खड़ा हो  गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि आदिवासी साहित्य न सिर्फ आदिवासियों के अस्तित्व एवं अस्मिता के सवालों तक सीमित है बल्कि यह समाज के उस तपके की आवाज है जो सदियों से अपने अधिकारों से वंचित एवं हाशिए पर रहे हैं।
  आदिवासी जीवन पर केन्द्रित कविताओं के आधार पर यह कहना सही होगा कि ये रचनाकार महज आदिवासी समुदाय की व्यथा-कथा ही नहीं कहते बल्कि इनमें निहित आत्माभिमान, अस्तित्व बोध एवं अस्मिता और विद्रोही चेतना को भी अभिव्यक्ति का केंन्द्र बनाते हैं। इन कविताओं में आदिवासी जीवन के तनावों, यातनाओं और इन सबके बीच अपने को जिंदा रखने की जद्दोजहद एवं परिस्थितियों से जूझते हुए निरंतर संघर्ष की शक्ति को रेखांकित किया गया है। ध्यान देने योग्य है कि आज आदिवासी समाज का मूल संघर्ष अब जल, जंगल और जमीन तक ही सीमित नहीं बल्कि अपने शोषण से मुक्ति के लिए भी सक्रिय है। एक प्रकार से देखें तो परिवर्तन ही इन कविताओं का मूल ध्येय है। आदिवासी जीवन पर लिखी गयी कविताओं में मानव समूह के सपने हैं, जिज्ञासाएँ हैं साथ ही सामाजिक बंधन में कसमसा रहे जीवन से मुक्ति की आकांक्षा भी विद्यमान है। इसमें आदिवासी समाज से जुड़े असंख्य प्रश्न हैं। वर्तमान आदिवासी कविताएं क्रांतिदर्शी हैं। इनमें अंधविश्वास के प्रति विरोध है। ये कविताएं पुरुषों की स्त्री विरोधी मानसिकता को बदलने में समर्थ हैं। निर्मला पुतुल की कविता क्या तुम जानते हो इस बात की सशक्त गवाह है। वे लिखती हैं- “क्या तुम जानते हो/ एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण/ बता सकते हो तुम/ एक स्त्री को स्त्री दृष्टि से देखते/ उसके स्त्रीत्व की परिभाषा/ अगर नहीं !/  तो फिर जानते क्या हो तुम/ रसोई और बिस्तर के गणित से परे/ एक स्त्री के बारे में।” इन पंक्तियों के माध्यम से निर्मला पुतुल पुरूष-मानसिकता की खिलाफत करते हुए यह बताती हैं कि स्त्री महज एक देह मात्र नहीं उसका अपना निजी अस्तित्व है। इस कविता में एक स्त्री और साथ ही साथ आदिवासी होने की पीड़ा एक साथ घुल-मिल गई है। इन दोनों का द्वंद्व ही उनकी कविताओं को और अधिक धारदार बना देता है।  
          आज यह कहना बिल्कुल सही होगा कि आदिवासी जीवन पर केन्द्रित लेखन जरूर हुआ है अथवा हो रहा है किंतु उसकी मूल संवेदना को लेकर उसकी सशक्त समीक्षा अभी बाकी है, इस दिशा में हमें ध्यान देने की जरूरत है। इन कविताओं में अभिव्यक्त आदिवासी समाज की चेतना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये कविताएं न सिर्फ आदिवासी समुदाय के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं को सच्चाई के साथ चित्रित करने में पूरी तरह सफल और समर्थ हैं बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन के लिए भी संघर्षरत हैं। अंत में महादेव टोप्पो के शब्दों में- “इतिहास तुम्हारा/ इतिहास के पन्नों पर/ गढ़ा नहीं शब्दों ने,/ ना ही हो सका दर्ज ग्रन्थों में।/ तुम्हारी विजय-गाथाओं/ और संघर्षों के गवाह/ पेड़ हैं, नदियां हैं, चट्टानें हैं।/ इससे पहले कि वे पुनः तुम्हारा अपने ग्रन्थों में / अन्य जानवर के रूप में करें वर्णन / तुम्हें अपने आदमी होने की/ तलाशनी होगी परिभाषा/ और रचने होंगे स्वयं अपने ग्रंथ

लेखकीय-परिचय


     प्रदीप त्रिपाठी                                                                       
जन्म-  7 जुलाई, 1992    
शैक्षणिक योग्यता- एम.ए. हिन्दी(तुलनात्मक सा.), एम.फिल. हिन्दी (तु.सा.), लोक-साहित्य, एवं कविता-लेखन में विशेष रुचि  
संप्रति-  डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट में साप्ताहिक लेखन/ साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, पी-एच. डी. में शोधरत
प्रकाशित रचनाएँ-  विभिन्न चर्चित पत्र-पत्रिकाओं (दस्तावेज़, अंतिम जन, परिकथा, कल के लिए , वर्तमान साहित्य, अलाव, नवभारत टाइम्स, डेली न्यूज़ ऐक्टिविस्ट आदि) में शोध-आलेख एवं कविताएं प्रकाशित और 15 से अधिक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तरीय सेमिनारों में प्रपत्र-वाचन एवं सहभागिता ।
संपर्क-    हिंदी एवं तुलनात्मक  साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दीविश्वविद्यालय, वर्धा
   संपर्क-सूत्र- 08928110451
    Email-  tripathiexpress@gmail.com